Book Title: Mahabal Malayasundari
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 308
________________ हुआ नीचे ऊंडी, पाताल-सी ऊंडी खाई में जा गिरा। महाबल क्षणभर के लिए अवाक रह गया। वह नवकार मंत्र का जाप करता हुआ चढ़ रहा था। शिखर तक पहुंचकर उस मार्गदर्शक ने अंगुलि के इशारे से दिखाते हुए कहा'योगीश्वर ! खाई की इस गहराई में वहां एक आम्रवृक्ष दीख रहा है, वही सदाबहार वृक्ष है । उसी के आम लाने हैं। उस तक पहुंचने का रास्ता आप स्वयं खोजें और निर्णय करें । महाराज ! आज तक हमने वहां जाने का रास्ता नहीं देखा है और कोई मनुष्य वहां तक नहीं पहुंच पाया है।' महाबल ने इधर-उधर देखा, पर मार्ग था ही नहीं। उसने अपनी धोती का कच्छ मारा। उत्तरीय से कमर को कसा और तीन बार नवकार महामंत्र का स्मरण कर उसने आम्रवृक्ष की ओर छलांग लगा दी। - मार्गदर्शक यह देखकर घबरा गया। उसने देखा, सिद्धेश्वर एक गोले की भांति नीचे चला जा रहा है। उसने अपनी दोनों हथेलियों से आंखें ढंक ली और कुछ क्षण वहां रुककर नगर की ओर चल पड़ा। .. एक चमत्कार घटित हुआ। महाबल का शरीर अभी आम्रवृक्ष पर नहीं गिर पाया था। उस वृक्ष का अधिष्ठाता एक व्यंतर देव था। उसने महाबल को इस ओर छलांग लगाते देख लिया था। 'महाबल को देखते ही उसके मन में एक स्मृति जागी। उसने गिरते हुए महाबल को झेल लिया। ___ मौत की कल्पना से छलांग लगाने वाले महाबल को अत्यन्त आश्चर्य हुआ। वह आश्चर्य शान्त हो, उससे पूर्व ही व्यंतर देव महाबल को लेकर उस आम्रवृक्ष के पिछले भाग में अदृश्य हो गया। ____ महाबल ने देखा-वह एक तेजस्वी पुरुष के साथ गुफा में एक शय्या पर बैठा है। महाबल व्यंतर के समक्ष हाथ जोड़कर बोला-'आपने मेरे पर महान् उपकार किया है। आपका परिचय जानना चाहता हूं।' 'महाबलकुमार ! एक वर्ष पूर्व तुमने मेरे पर महान् उपकार किया था। तुम स्वर्णपुरुष की साधना में मेरे सहायक बने थे। याद है ?' महाबल ने नम्रतापूर्वक सिर हिलाकर स्वीकृति दी। व्यंतरदेव ने कहा-'मैं उसी योगी का जीव हूं। वहां से मरकर मैं इस आम्रवृक्ष पर व्यंतरदेव के रूप में जन्मा हूं। तुम्हें गिरते देख मेरी स्मृति ताजा हो गई। मैंने उपकार का बदला चुका दिया है। तुम यहां क्यों आए ? पर्वत से क्यों छलांग लगायी ?' महाबल ने सारी घटना संक्षेप में कही। व्यंतरदेव बोला---'महाबल ! तुम्हारे साहस का मैं अभिनंदन करता हूं। महाबल मलयासुन्दरी २६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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