Book Title: Mahabal Malayasundari
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 312
________________ 'इसमें मेरा कोई दोष नहीं है ।' महाराजा की दशा पर सारी सभा हंस पड़ी। महाराजा ने कहा - " मित्र ! तुमने अपना कार्य कर डाला । अब मेरा मुंह पूर्ववत् कर डालो ।' महाबल ने स्वर्णप्रभु का स्मरण कर राजा का मुंह पुनः घुमाया और उसे पूर्ववत् कर डाला । राजा का मन अभी भी पाप मुक्त नहीं हुआ था । उसके मन में महाबल को मार डालने की भावना थी । उसने अभिनय किया और महाबल को साथ भोजन करने के लिए राजी कर लिया । दोनों भोजन करने बैठे । इतने में ही व्यंतरदेव ने महाबल के कान में कहा - 'युवराज ! दूध का पात्र मुंह से नहीं लगाना । उसमें विष घुला है। राजा ने तुम्हारे विनाश के लिए एक षड्यंत्र रचा है । आज तुम निश्चिन्त रहो मैं उसे शिक्षा दूंगा ।' व्यंतरदेव के कथनानुसार महाबल ने दूध नहीं पीया । कुछ दूसरी चीजें खा उठ गया । इतने में ही महाप्रतिहार हांफता - हांफता आया और बोला —— 'कृपावतार ! गजब हो गया ।' 'क्या हुआ ?' | 'आपकी अश्वशाला में आग लग गई। 'आग', इतना कहते ही राजा नीचे बैठ गया । उसने अभिनय करते हुए कहा - 'ओह ! यदि आग नहीं बुझेगी तो मूल्यवान् अश्व जलकर भस्म हो जाएंगे।' आग चारों ओर फैलने लगी। उसकी भयंकरता से सारा राजभवन कांप उठा। सभी लोग इधर-उधर दौड़ने लगे । यह आग राजा द्वारा पूर्व - नियोजित थी । राजा सिद्धेश्वर को लेकर अश्वशाला की ओर गया । महाबल ने आग की भयंकरता को देखा । महाराजा ने कहा- 'सिद्धेश्वर ! आप महान् उपकारी हैं आपने मेरे सभा मंडप की रक्षा की है । इस अश्वशाला में मेरा एक बहुमूल्य और प्रिय अश्व है । वह पंचकल्याणक अश्व है । आप उसका रक्षण करें। मैं आपका यह उपकार जीवनभर नहीं भूलूंगा ।' महाबल सोचने लगा, इस आग में प्रवेश कर बाहर कैसे निकलूंगा ? महाबल को चिंतित देख, व्यंतरदेव ने कहा- 'वत्स ! तुझे जला डालने का महाबल मलयासुन्दरी ३०३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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