Book Title: Mahabal Malayasundari
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 307
________________ २. मौत को निमंत्रण राजा ने कहा- सिद्धेश्वर, तुम आ गए ?" 'हां, महाराज ! आपकी कृपा से मैं राख लेकर आ गया । आप इस राख से अपना सिरशूल मिटाएं और मेरी पत्नी मलया मुझे सौंपें ।' 'सिद्धेश्वर ! मेरे मन में सन्देह उभर रहा है कि तुमने इस कार्य में चालाकी की है । चिता में जलने वाला जीवित कैसे रह सकता है ? या तो तुम अदृश्य होकर चिता से निकल भागे थे या तुम किसी और मांत्रिक प्रयोग से सबकी दृष्टि को बांधकर भाग गए थे ।' महाबल बोला- 'यह संशय निराधार है । आपके रक्षकों के समक्ष मैंने चिता में प्रवेश किया था। आस-पास में हजारों लोग थे । चिता को चारों ओर से सुलगाया था और मैं उसमें जलकर राख हो गया था ।' 'अरे, तो फिर तुम जीवित कैसे आ गए ?" 'महाराज ! साधना की शक्ति अपार होती है । मैं जलकर राख हो गया था। मेरे इष्टदेव को मेरी मृत्यु के बारे में जानकारी हुई। रात्रि के अन्तिम प्रहर में वह देव मेरे पास आया और अमृत का छिड़काव कर मुझे जीवित कर दिया । देव ने ही मुझे आज्ञा दी है कि यह तेरे ही शरीर की राख है, राजा को दे दे। मैं इसीलिए इसे आपको देने आया हूं ।' महाराजा ने कहा - 'प्रिय ! कोई बात नहीं है । तुमने अपनी शर्त पूरी कर ली । अब मित्रभाव के कारण एक छोटा-सा कार्य और कर दो ।' 'महाराजश्री ! आप अपना कार्य मुझे शीघ्र बताएं ।' महाबल ने कहा । राजा बोला -- नगर से कुछ दूर छिन्नकटक नामक एक पर्वत है । उस पर्वत पर एक विषम शिखर है और उस शिखर के पीछे एक खाई है । उस खाई के किनारे एक आम्र-वृक्ष है जो सदा आम्रफलों से लदा रहता है । सभी ऋतुओं वह आम देता है । मैं चाहता हूं कि तुम उस वृक्ष के आम ले आओ । मैं पित्तप्रकोप से पीड़ित हूं और वैद्यों ने मुझे आम्ररस में औषधि सेवन का परामर्श दिया है। उस औषधि का इसी ऋतु में आसेवन करना होता है। आम की ऋतु अभी दूर है। तुम वहां से आम ला दो मेरा पित्त रोग नष्ट हो जाएगा ।' महाबल ने राजा की भावना परख ली। उसने कार्य की स्वीकृति दे दी । राजा ने दो व्यक्तियों को शिखर तक मार्ग दिखाने के लिए भेज दिया । उन्हें आगे कर महाबल चला । महाबल ने देखा मार्ग अत्यन्त विकट था, पर्वत की चढ़ाई अत्यन्त सीधी थी । एक क्षीण पगडंडी जा रही थी। दोनों मार्गदर्शक और महाबल उस पगडंडी पर चलने लगे । एक मार्गदर्शक का पैर फिसला और वह भयंकर रूप से चीखता २९८ महाबल मलयासुन्दरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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