Book Title: Mahabal Malayasundari
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 294
________________ मंडल में विराजित गृह-नक्षत्रो ! अपने महाबल के लिए मैं जो कुछ सह सकती थी, मैंने सहा है अब मेरे में विशेष सहने की शक्ति नहीं है यदि आप मेरे प्रियतम को कभी कुछ संदेश दे सकें तो इतना मात्र कहना कि दुःख के भार से बी हुई तुम्हारी मलया ने कायर होकर ऐसा विश्राम लिया है, जो कभी उचित नहीं माना जा सकता । वह कुछ गंभीर हुई और जोर से बोली- 'महाबल ! तुम कहीं भी हो, मेरा नमस्कार स्वीकार करना सुखी रहना ।' मात्र बीस कदम दूर स्थित महाबल एक पुरुष के मुंह से अपना नाम सुनकर अत्यधिक चंचल हो उठा और वह कूप पर आए उससे पूर्व ही मलयासुंदरी ने उस अंधकूप में छलांग लगा दी । मलयासुंदरी ने दोनों आंखें बन्द कर कूप में छलांग लगायी "परन्तु कुएं में पत्थर नहीं, रेत अधिक थीमलया कूप के तल तक पहुंची रेत पर गिरी और मूच्छित हो गई । उसी क्षण महाबल भी कुएं के पास आ गया। अंदर घना अंधकार व्याप्त था। कुछ भी दीख नहीं रहा था । फिर भी उसने अंदर उतरने का प्रयत्न किया एक वृक्ष का मूल उसके हाथ में आया उसको पकड़कर महाबल कुछ नीचे उतरा फिर एक पैर टिकने भर का भी स्थान वहां नहीं था । इसलिए उसने संभलकर नीचे छलांग मारी । 10 सद्भाग्य से जहां मलयासुंदरी गिरी थी उसके एक हाथ की दूरी पर महाबल उस रेत पर आ गिरा और अंधकार के कारण हाथ को इधर-उधर फैलाता हुआ कुछ खोजने लगा । इधर राजा कंदर्पदेव अपने दो सैनिकों को वहां रोककर दूर निकल गया था । उसने इस कूप की ओर देखा तक नहीं । Jain Education International महाबल मलयासुन्दरी For Private & Personal Use Only २८५ www.jainelibrary.org

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