Book Title: Mahabal Malayasundari
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 300
________________ तो मांत्रिक के सिवाय इस विष का निवारण नहीं हो सकेगा, इसलिए आप तत्काल मांत्रिक को बुलाकर प्रयत्न करें।' राजवैद्य ने आगे कहा--'महाराज ! जब तक मांत्रिक या गारुड़िक नहीं आ जाते तब तक मैं एक प्रयोग करता हूं."यदि वह औषधि कुछ भी काम कर पाएगी तो मेरा प्रयत्न अवश्य ही सफल होगा...' कहकर राजवैद्य प्रयोग की तैयारी में लग गया। राजा ने नगरी के प्रसिद्ध गारुड़िक और मांत्रिकों को बुलाने के लिए आदमी भेजे। रात्रि के अंतिम प्रहर में दस-बारह मांत्रिक और गारुड़िक आ गए। राजवैद्य का प्रयोग सफल नहीं हुआ। वह हाथ झटककर दूर बैठ गया था। मांत्रिकों ने प्रयोग प्रारंभ किए "किन्तु एक भी प्रयोग सफल नहीं हुआ। एक गारुड़िक अपना प्रयोग पूरा कर बोला--'महाराज ! यदि नाग को न मारा होता तो मैं अपनी मंत्रशक्ति से उसी नाग को यहां बुला लेता और देवीजी के विष को चूसने का निर्देश देता''अब मैं लाचार हूं।' महाराजा ने पूछा---'क्या ऐसा कोई उपाय नहीं है कि इस देवी का विष उतर जाए?'. ... एक वृद्ध गारुड़िक बोला---'कृपावतार ! यदि किसी के पास मणिधर नाग की मणि हो या विशेष साधना-बल हो तो ही इस सुंदरी को बचाया जा सकता है, अन्यथा नहीं। हमारे पास ऐसी कोई शक्ति नहीं है।' सूर्योदय हो चुका था। मलयासुंदरी मूच्छित अवस्था में शय्या पर पड़ी थी। उसके प्राण ब्रह्मरंध्र में सिमट गए थे। राजा बार-बार उसके विष-मुक्ति की बात सोच रहा था, क्योंकि वह उसे अपने हाथों से गंवाना नहीं चाहता था । उसका उपभोग करना चाहता था। सर्पदंश की बात सारे नगर में फैल गई। दो-चार अन्य मांत्रिक भी आए, पर सब असफल रहे। राजा ने तत्काल अपने महामंत्री जीवक को एक ओर बुलाकर कुछ कहा । जीवक मंत्री तत्काल बाहर चला गया और दूसरे उपमंत्रियों को सूचना दी। लगभग दो घटिका के पश्चात् राज्य के चार संदेशवाहक नगरी के बाहर भिन्न-भिन्न दिशाओं में चले गए। वे राज्य के सभी नगरों में जा-जाकर यह घोषणा करने लगे-~'राजभवन में मलयासुन्दरी नाम वाली एक सुन्दर स्त्री को नाग ने डस लिया है. उसके विष को दूर करने के सभी उपाय निष्फल गए हैं. 'महाराजा कंदर्पदेव यह घोषणा करते हैं कि जो कोई व्यक्ति मलयासुन्दरी को विषमुक्त कर नया जीवन देगा, उसे 'रणरंग' नामक हाथी, राजकन्या और महाबल मलयासुन्दरी २६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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