Book Title: Mahabal Malayasundari
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 285
________________ ५२. कोड़े की मार स्नान से निवृत्त होकर, सादे वस्त्र पहनकर मलयासुन्दरी अपने कक्ष में आयी । महाराजा को अपने कक्ष में उपस्थित देख, वह स्तंभित होकर खड़ी रह गई । मलया के यौवनश्री से छलकते शरीर को देखते हुए महाराजा ने कहा'मलया ! तेरा चित्त तो प्रसन्न है न ?” 'पिता की छत्रछाया में पुत्री को किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं होता । आप कुशल हैं न ?' मलया के शब्द से महाराजा का हृदय झनझना उठा । वे बोले – 'तुझे ऐसा कहना शोभा नहीं देता । तेरे लिए मैं एक अलभ्य वस्तु लाया हूं' कहते हुए कंदर्पदेव ने आम्रफल बाहर निकाला और कहा - ' इस ऋतु में दुर्लभ माना जाने वाला यह आम्रफल तेरे चित्त की प्रसन्नता के लिए लाया हूं ।' आम्रफल देखते ही मलया चौंकी । उसे तापसमुनि द्वारा प्रदत्त औषधि की स्मृति हो आयी । उसने सोचा - अनन्त पापों के बीच में कोई पुण्य हुआ हो, ऐसा लगता है । शील के रक्षण का उपाय पास में होते हुए भी आम्ररस के अभाव में उसका उपयोग नहीं हो सका । पुण्य के प्रभाव से ही आम प्राप्त हुआ है । मलया ने प्रसन्न स्वरों में कहा - 'महाराज ! मैं धन्य हो गई । ' महाराजा ने मलया के हाथों में आम देते हुए कहा- 'मलया ! इस अलभ्य वस्तु का तुम उपयोग करना और यह समझने का प्रयत्न करना कि मेरा तेरे प्रति कितना प्रेमभाव है ! मैं तुझे एक वचन देता हूं कि यदि तु मेरी जीवनसंगिनी बनेगी तो मैं तुझे पटरानी बनाऊंगा और तेरी आज्ञा को जीवनभर मस्तक पर चढ़ाता रहूंगा ।' मलया बोली - 'महाराज ! आप अपनी उदारता, प्रतिष्ठा और कर्तव्यबुद्धि को इन मलिन विचारों से दूषित न करें ।' 'मलया ! बलात्कार से मैं तुझे अपनी बनाऊं, उसमें सच्चा आनंद नहीं है इसलिए मैंने धैर्य धारण कर रखा है। किन्तु तू मेरे हृदयगत सद्भाव को नहीं जान पा रही है। धैर्य की भी मर्यादा होती है । प्रिये ! मैं कल संध्या समय २७६ महाबल मलयासुन्दरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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