Book Title: Mahabal Malayasundari
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 250
________________ गांठ अपने पास रख । “किसी समय इसका उपयोग हो सकता है। कल प्रातःकाल ही मैं एक पर्वत की ओर जाऊंगा और संध्या होते-होते लौट आऊंगा।' मलया ने उस वनस्पति की गांठ को अपने उत्तरीय के छोर से बांधते हुए कहा---'पर्वत पर!' हां, उस पर्वत पर एक आकाशगामिनी वनस्पति है. इसी ऋतु में वह प्राप्त हो सकती है।' कहता हुआ तापसमुनि कुटीर की ओर चला गया। मलया भी पीछे-पीछे गई। कुटीर के पास पहुंचकर तापस मुनि ने कहा-~~-'पुत्री ! पन्द्रह-बीस वर्षों से मैं इस आकाशगामिनी वनस्पति को प्राप्त करने का प्रयत्न कर रहा हूं किन्तु मुझे सफलता नहीं मिली। इस बार दृढ़ विश्वास है कि तेरी जैसी सौभाग्यशालिनी के योग से मेरा श्रम सार्थक होगा।' 'महात्मन् ! मैं तो आपके चरणों की रज हूं। क्या यह दिव्य औषधि कल ही प्राप्त हो जाने वाली है ?' 'हां, पुत्री ! कल मध्याह्न के समय नक्षत्रों का उचित योग हो रहा है । पुनः वैसा योग आगे नहीं है और यह ऋतु भी पूरी होने वाली है। अकेले रहने से तुझे कोई भय तो नहीं है ? 'नहीं, किन्तु मुझे आपसे कुछ परामर्श करना है।' 'परसों मैं कहीं नहीं जाऊंगा, यहीं रहूंगा। उस समय तुझे जो पूछना हो पूछ लेना, जो जानना हो जान लेना। आकाशगामिनी वनस्पति के विषय में कुछ पूछना है ?' मलया मौन रही। वह तापस की ओर देखती रही। तापस बोला-'मलया ! कल वह दिव्य वनस्पति मुझे प्राप्त हो जाएगी, फिर तू अपने बालक के साथ आकाशगमन का आनंद लेना । कुछ ही क्षणों में वह दिव्य वनस्पति तू जहां जाना चाहेगी, पहंचा देगी। उस दिव्य वनस्पति को चावल के मांड में पीसकर पैरों के तलवे में लगाने से व्यक्ति फूल जैसा हल्का बन जाता है और वह पृथ्वी से एक कोस ऊंचा आकाश में उठ जाता है। फिर वह जिस दिशा में गति करना चाहे, कर सकता है।' 'अद्भुत वनस्पति ! मैं श्री जिनेश्वरदेव से प्रार्थना करती हूं कि आपका प्रयत्न सफल हो।' मुनि ने प्रसन्नवदन से मलया को आशीर्वाद दिया और कुटीर के भीतर प्रवेश किया। मलया भी अपने कुटीर में आ गयी। बच्चा अभी सो रहा था। मलया ने बालक को गोद में ले लिया, उसे स्तनपान कराते हुए सोचा--- यदि वह आकाशगामिनी वनस्पति कल प्राप्त हो जाएगी तो वह अपने बालक को महाबल मलयासुन्दरी २४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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