Book Title: Mahabal Malayasundari
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 282
________________ स्वामिनी भी बना दें तो भी मैं अपना शील नहीं बेचूंगी । राधिका ! इस तुच्छ और क्षणिक सुख के लिए अपने आपको समर्पित करने के बदले मौत को समर्पित होना मैं अधिक श्रेयस्कर मानती हूं।' राधिका बोली--'देवी ! आपके प्रति मेरे मन में अपार सहानुभूति है।' 'क्या तू मेरा एक कार्य कर सकेगी ?' 'हां, देवी ! एक नहीं, एक सौ कार्य ।' 'तू नहीं कर सकेगी। दासी आखिर दासी ही होती है। वह बेचारी' होती 'आप मुझे एक बार अपना कार्य बताएं...' मलया ने गंभीर होकर कहा-'यदि तेरे मन में मेरे प्रति वास्तविक सहानुभूति है तो तू मुझे यहां से मुक्त करने में सहायक बन ।' राधिका अवाक रह गई। वह मलया को देखने लगी। उसने मन-ही-मन सोचा-कैसी वज्रमय है यह नारी ! इतनी विपत्तियों के बीच रहने पर भी कितना स्वाभिमान है इस नारी में ! यह बेचारी नहीं जानती कि कंदर्पदेव के पिंजरे में बंद पक्षी बाहर नहीं जा सकता। पिंजरे में भले ही छटपटाकर प्राण 'देवी ! आप मेरी बात स्वीकार कर लेती तो बहुत सुन्दर परिणाम आता।' 'राधिका ! तू नहीं जानती, मैं प्रतिपल मौत को सिरहाने रखकर सोती हं । मौत से भयंकर और कोई नहीं होता और मैं मृत्यु का वरण करने के लिए सदा तैयार रहती हूं।' राधिका नमस्कार कर चली गई। मलया ने सोचा–यदि यहां से भागने का अवसर मिल जाए तो पीड़ाओं का अंत आ सकता है। यदि पुरुष की वेशभूषा प्राप्त हो जाए तो ही यहां से निकला जा सकता है। इसके लिए राधिका का सहयोग लेना पड़ेगा। मुझे राजी रखने के लिए वह मेरा यह काम कर देगी। दूसरे दिन मलया राधिका को प्रसन्न करने में सफल हो गई और राधिका ने मलया को एक धोती, उत्तरीय और पगड़ी ला दी। मलया ने यह पुरुष वेश अपने खंड में रख दिया और वह पुरुषवेश में यहां से बच निकलने की प्रतीक्षा करने लगी। राधिका मलया की योजना से अनजान थी। उसने सोचा, संभव है मलया का मन बदल जाए और महाराज की बात स्वीकार कर ले । इसलिए उसकी मनोकामना पूर्ण करने में ही हित है। उसी रात को राधिका ने पुनः महाराजा के प्रश्न को छेड़ने की दृष्टि से मलया से कहा-~~'देवी ! आपने पुरुष की पोशाक मंगाई, परन्तु आपने उसे महाबल मलयासुन्दरी २७३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322