Book Title: Kya Swad Hai Zindagi ka
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 56
________________ 1 विनाश का कारण बन सकती है । ढेर सारे मित्रों को एकत्र करने का कोई औचित्य नहीं है, अगर वे आपके विकास में सहायक न बन सकें। आपको पता है कि अर्जुन और श्रीकृष्ण में अच्छी मित्रता थी । यद्यपि गुरु-शिष्य का भाव था, भगवानभक्त का भाव था। इसके अतिरिक्त तीसरा भाव था- सखा-भाव, मित्रता का भाव । जिसके कारण कृष्ण जैसे महापुरुष भी अपने सखा - भाव को रखने के लिए अर्जुन का रथ हांकने के लिए सारथी बन जाते हैं। मित्रता का आदर्श है कृष्ण और अर्जुन का परस्पर व्यवहार । एक नुस्खा आजमाइए कि कल तक जो आपका मित्र था, जिसे आज भी आप अपना मित्र मानते हैं, और संयोग की बात कि वह कलेक्टर, एस.पी या इसी तरह के किस उच्च पद पर पदस्थ हो गया है। आप उससे मिलने जाइएगा, आपको एक ही दिन में पता लग जाएगा कि वह कैसा आदमी है और उसके साथ कैसी मित्रता थी । आपकी मित्रता का सारा अहंकार, सारा भाव दो मिनट में खंडित हो जाएगा जब आप उसके पास जाएंगे। मित्र तो कृष्ण जैसे ही हो सकते हैं कि सुदामा जैसा गरीब ब्राह्मण सखा जब उनके द्वार पर आता है, तो कृष्ण मित्रता के भाव को रखने के लिए कच्चा सतू भी खा लेते हैं और जब सुदामा वापस अपने घर पहुंचता है तो आश्चर्यचकित रह जाता है कि टूटे-फूटे खपरैल की झौंपड़ी की जगह आलीशान महल खड़ा है । ऐसी मैत्री धन्य होती है जहाँ एक ओर दुनिया का महासंपन्न अधिपति है, दूसरी ओर ऐसा व्यक्ति है जिसके पास खाने को दाना नहीं, पहनने को कपड़े नहीं । सुदामा जब कृष्ण के द्वार पर जाता है, तो कृष्ण यह नहीं कहते कि मैंने तुम्हें पहचाना ही नहीं । उसका परिचय नहीं पूछते, न ही कहते हैं कि कभी मिले तो. थे, पर याद नहीं आ रहा है, बल्कि उसके पांवों का प्रक्षालन करते हैं, मित्र का स्वागत करते हैं, उसकी गरीबी दूर करते हैं। सच्चा मित्र वही होता है जो मित्र को भी अपने बराबरी का बनाने का प्रयास करे। जिनके चरण सदा महालक्ष्मी के करतल में रहते हैं वे प्रभु कृष्ण रूप में ग्वालों के संग मैत्री भाव में कांटों पर - Jain Education International 55 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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