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आवेश। जिस समय ये तीन दोष हमारे मस्तिष्क में उथल-पुथल मचा रहे हों, उस समय लिए गए सही निर्णय भी गलत परिणाम दे जाते हैं।
गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं - संशयात्मा विनश्यति - जिसके भीतर संशय की ग्रंथि बन गई है, वह नष्ट हो जाता है । संशय विचार का दोष है। मैंने अगर ऐसा किया और वैसा न हुआ तो, मैं घर से बाहर निकला और दुर्घटना हो गई तो, दुकान खोली और न चली तो? संशय हमें नकारात्मक दृष्टिकोण देता है। जब भीतर में संशय है तो सफल होते हुए कार्य भी असफल हो जाते हैं, इसलिए व्यक्ति अपने मन में कभी संशय की, आशंका की ग्रंथि लेकर कार्य न
करे।
एक किसान खेत में बीज का वपन करता है और उसके मन में एक संशय पनप गया कि मैं बीज तो बो रहा हूं और बारिश न हुई तो ? ऐसे में क्या वह बीजों का वपन कर पाएगा? जिसके भीतर संशय जगा उसकी श्रद्धा समाप्त, उसका विश्वास विछिन्न । संशय के द्वार पर खड़ा हुआ व्यक्ति जीवन का कोई निर्णय करने में समर्थ नहीं होता है। वह त्रिशंकु की तरह आसमान में लटकता रह जाता है। नआवेश, न आग्रह __ आवेश या क्रोध की वेला में जब भी कोई व्यक्ति सोचेगा, वह शुभ नहीं होगा। जब आप आवेश में हों और उस वक्त कोई निर्णयात्मक बात आ गई है तो आप उसे टाल दें। कह दें कि तीन घंटे बाद निर्णय लेंगे, ताकि आप भली-भाँति शांत मन से उसके बारे में सोच सकेंगे। जब आप सोच चुके हैं कि मुझे ऐसा ही करना है, मुझे ऐसा ही बनना है, मेरे द्वारा ऐसा ही कहा जाएगा तब आप किसी बात को सुलझा नहीं सकते। किसी समाज की मीटिंग होती है बात को सुलझाने के लिए। दस लोग इकट्ठे होते हैं। पहले से दोनों पक्ष सोचकर आये हैं कि हमें किसी भी हालत में इस बात को नहीं मानना है । आप ही बताएं कि तब
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