Book Title: Kya Swad Hai Zindagi ka
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

View full book text
Previous | Next

Page 114
________________ करें। सबके साथ, सबके बीच रहकर भी सबसे ऊपर उठे रहें, निर्लिप्त रहें। संसार में कमलवत रहें। जैसे धाय माता बच्चे को खिलाती है, वह जानती है कि यह बच्चा मेरा नहीं है, किसी और का है। वैसे ही अपने घर, परिवार, ऑफिस में निर्लिप्त रहो। पांव भले ही कीचड़ में हों, पर मनोमस्तिष्क कीचड़ से बाहर रहे। भगवान कृष्ण के लिए अनासक्त कर्मयोगी शब्द का प्रयोग किया गया है। जबकि कहा जाता है कि उनके सोलह हजार पत्नियां थी। तुम तो एक में ही जिंदगी भर के लिए धंसे रह गए। अभी भी अगर मुक्ति की वेला आती है तो आदमी कहता है मेरा मन तृप्त नहीं हुआ। मनुष्य का जीवन पूर्ण हो जाता है, लेकिन उसके मन की कामनाएँ कभी पूर्ण नहीं होती। मन का दूसरा दोष है - वासना। अगर व्यक्ति के भीतर वासना की भावना पल रही है तो वह उस गिद्ध की तरह है तो धरती से कोसों ऊपर भी चला जाएगा, तब भी मांस के टुकड़े को देखते ही तुरन्त धरती पर मांस का टुकड़ा तलाशेगा। जो व्यक्ति कितना भी ऊपर उठ जाएगा, लेकिन निमित्त मिलते ही, वासना के अंकुरित होते ही दुष्कर्म की ओर बढ़ जाएगा। वासना के आगे तो बड़े-बड़े ऋषि-महर्षि भी धराशायी हो गए हैं। अगर विश्वामित्र गिरते हैं तो इसका दोष किसी मेनका को देने की बजाय, विश्वामित्र के मन के अंदर छिपे वासना के बीज को ही है, जो मेनका का निमित्त पाकर उजागर हो गया। इसलिए मनुष्य टटोले अपने आपको कि वह वासना से कितना ऊपर उठ पाया है।आप ईमानदारी से अपने भीतर झांकेऔर देखे कि क्या मन तृप्त हो गया है? जैसी नज़र वैसा नज़ारा ____ तीसरा मंत्र देना चाहूंगा नजर की निर्मलता का । जब भी किसी को देखें पवित्र आँखों से देखें। आपको सुंदर महिला और सुंदर पुरुष को देखने का पूरा हक़ है लेकिन शर्त यही है कि निर्मल आँखों से देखें । पवित्र आँखों से दुनिया के सौन्दर्य को देखें। मनुष्य सुंदरता ज़रूर देखे पर सही नज़रिये से देखे। जैसी हमारी नज़रें होती है, नज़ारा वैसा ही होता है। जैसी दृष्टि होगी वैसी 113 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154