Book Title: Kuvalayamala Part 1
Author(s): Udyotansuri, A N Upadhye
Publisher: Bharatiya Vidya Bhavan

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Page 21
________________ कुवलयमाला कुवलयमालाकी आज तक ये दो ही मूल प्रतियां उपलब्ध हो रही हैं। तीसरी प्रति अभी तक कहीं ज्ञात नहीं है । ये दोनों प्रतियां बिल्कुल स्वतंत्र हैं। इनमें जो पाठभेद प्राप्त हो रहे हैं वे ऐसे हैं जो स्वयं ग्रन्थकार ही के किये हुए होने चाहिये । डॉ० याकोबी इस बातको सुन कर चकित हुए । उनने स्वयं कुवलयमालाके इस प्रकारके पाठभेद वाले १०-२० उदाहरण देखने चाहे । पर मेरे पास उस समय इसकी प्रतिलिपि थी नहीं। मैंने पीछेसे उनको इसके भेजनेका अभिवचन दिया। जैन भण्डारोंमें ऐसे कुछ ग्रन्थ मेरे देखनेमें आये हैं जो इस प्रकार स्वयं ग्रन्थकार द्वारा किये गये पाठान्तरोंका उदाहरण उपस्थित करते हैं । प्रो० वेबरके बर्लिन वाले हस्तलिखित ग्रन्थोंके विशाल केटेलॉगमें से धर्मसागर उपाध्यायकी तपागच्छीय पट्टावलिका मैंने उल्लेख किया, जिसको उनने अपनी नोटबुकमें लिख लिया। प्रो० याकोबीने वार्ताके अन्तमें अपना अभिप्राय पुनः दौराया कि आप भारत जा कर कुवलयमालाको प्रकट कर देनेका प्रयत्न अवश्य करें। हाम्बुर्गमें मैं ३-४ महीने रहा और जैन साहित्यके मर्मज्ञ विद्वान् प्रो० शुब्रींगके और उनके विद्वान् शिष्य डॉ० आल्सडोर्फ वगैरहके साथ प्राकृत और अपभ्रंश भाषा विषयक जैन साहित्यके प्रकाशन आदिके बारेमें विशेष रूपसे चर्चा वार्ता होती रही। डॉ० ऑल्सडोर्फ उस समय, गायकवाडस् ओरिएण्टल सीरीझमें प्रकाशित 'कुमारपालप्रतिबोध' नामक बृहत् प्राकृत ग्रन्थका जो मैंने संपादन किया था उसके अन्तर्गत अपभ्रंश भाषामय जो जो प्रकरण एवं उद्धरण आदि थे उनका विशेष अध्ययन करके उस पर एक स्वतंत्र ग्रन्थ ही तैयार कर रहे थे । हाम्बुर्गसे मैं फिर जर्मनीकी जगद्विख्यात राजधानी बर्लिन चला गया । वहांकी युनिवर्सिटीमें, भारतीय विद्याओंके पारंगत विद्वान् गेहाइमराट्, प्रो० हाइनीश ल्युडर्स और उनकी विदुषी पत्नी डॉ० एल्जे ल्युडसे घनिष्ठ स्नेहसंबन्ध हुआ । मैं वारंवार उनके युनिवर्सिटी वाले रूममें जा कर मिलता और बैठता । वे भी अनेक वार मेरे निवासस्थान पर बहुत ही सरल भावसे चले आते। उस वर्षकी दीवालीके दिन मैंने उन महामनीषी दम्पतीको अपने स्थान पर भोजन के लिये निमंत्रित किया था जिसका सुखद स्मरण आज तक मेरे मनमें बडे गौरवका सूचक बन रहा है। डॉ० ल्युडसकी व्यापक विद्वत्ता और भारतीय संस्कृतिके ज्ञानकी विशालता देख देख कर, मेरे मन में हुआ करता था कि यदि जीवनके प्रारंभकालमें-जब विद्याध्ययनकी रुचिका विकास होने लगा था, उस समय,-ऐसे विद्यानिधि गुरुके चरणोंमें बैठ कर ५-७ वर्ष विद्या ग्रहण करनेका अवसर मिलता तो मेरी ज्ञानज्योति कितनी अच्छी प्रज्वलित हो सकती और मेरी उत्कट ज्ञानपिपासा कैसे अधिक तृप्त हो सकती। डॉ० ल्युडर्स भारतकी प्राग्-मध्यकालीन प्राकृत बोलियोंका विशेष अनुसन्धान कर रहे थे । मैंने उनको कुवलयमालामें उपलब्ध विविध देशोंकी बोलियोंके उस उल्लेखका जिक्र किया जो प्रस्तुत आवृत्तिके पृष्ठ १५१-५३ पर मुद्रित है। उनकी बहुत इच्छा रही कि मैं इस विषयके संबन्धका पूरा उद्धरण उनको उपलब्ध कर दूं । पर उस समय मेरे पास वह था नहीं, और मेरे लिखने पर कोई सज्जन यहांसे उसकी प्रतिलिपि करके भेज सके ऐसा प्रबन्ध हो नहीं सका। जर्मनीसे जब वापस आना हुआ तब, थोडे ही समय बाद, महात्माजीने भारतकी स्वतंत्रताप्राप्तिके लिये नमक-सत्याग्रहका जो देशव्यापी आन्दोलन शुरू किया था उसमें भाग लेने निमित्त मुझे ६ महीनेकी कठोर कारावास वाली सजा मिली और नासिककी सेंट्रल जेलमें निवास हुआ। उस समय मान्य मित्रवर श्री कन्हैयालालजी मुन्शीका भी उस निवासस्थानमें आगमन हुआ। हम दोनों वहां पर बडे आनन्द और उल्हासके साथ अपनी साहित्यिक चर्चाएं और योजनाएं करने लगे। वहीं रहते समय श्री मुन्शीजीने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'गुजरात एण्ड इटस् लिटरेचर' के बहुतसे प्रकरण लिखे, जिनके प्रसंगमें गुजरातके प्राचीन साहित्यके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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