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प्रस्तावना
तिरेपन
करनेका पुरुषार्थ करना चाहिए।
__ 'शरीर, धन, सांसारिक सुख-दुःख, शत्रु तथा मित्र आदि, इस जीवके नहीं हैं, क्योंकि ये सब अध्रुव -- विनश्वर हैं। एक उपयोगरूप ध्रुव आत्मा ही आत्माका है' ऐसा विचार कर जो स्वपरका भेदज्ञान करता हुआ 'स्व'का ध्यान करता है वही मोहकी सुदृढ़ गाँठको नष्ट करता है। जो मोहकी गाँठको नष्ट कर चुकता है अर्थात् मिथ्यात्वको छोड़ चुकता है - - 'परपदार्थ सुख-दुःखके कर्ता हैं' इस मिथ्या मान्यताको निरस्त कर चुकता है वही रागद्वेषको नष्ट कर श्रमण अवस्थामें, सुख-दुःखमें समताभाव रखता हुआ अविनाशी स्वाधीन सुखको प्राप्त होता है।
इस प्रकार द्वितीय श्रुतस्कंधमें ज्ञेयतत्त्वोंका विस्तारसे वर्णन कर जीवको स्वयं स्वसन्मुख होनेका उपदेश दिया गयाहै। आत्मासे अतिरिक्त पदार्थ ज्ञेय तो हो सकते हैं, पर ग्राह्य नहीं हो सकते। ग्राह्य एक स्वकीय शुद्ध आत्मा ही हो सकता है।
चारित्राधिकार चारित्राधिकारका प्रारंभ करते हुए कुंदकुंद स्वामी कहते हैं --
'पडिवज्जइ सामण्णं जदि इच्छसि दुक्खपरिमोक्खं'।।१।। दुःखोंसे यदि परिमोक्ष -- पूर्ण मुक्ति चाहते हो तो श्रामण -- मुनिपद धारण करो।
सम्यग्दर्शनसे मोक्षमार्ग शुरू होता है और सम्यक्चारित्रसे उसकी पूर्णता होती है। जबतक सम्यक्चारित्र -- परम यथाख्यात चारित्र नहीं होता तब तक यह जीव मोक्षको प्राप्त नहीं होता। इसलिए मोक्षका साक्षात् मार्ग चारित्र है, यह जानकर चारित्र धारण करनेका प्रयास करना चाहिए। यहाँ इतना स्मरणीय है कि कुंदकुंद स्वामी प्रारंभमें ही चारित्रकी परिभाषा कहते हुए लिख चुके हैं कि मोह और क्षोभसे रहित आत्माकी परिणति ही साम्यभाव है और ऐसा साम्यभाव ही चारित्र कहलाता है। ऐसे चारित्रसे ही कर्मोंका क्षय होकर शाश्वत सुखकी प्राप्ति होती है। चारित्रगुणका पूर्ण विकास मुनिपदमें होता है अतः मुनिपद धारण करनेके लिए आचार्यने भव्यजीवोंको संबोधित किया है। जो भव्य जीव मुनिपदको धारण करनेके लिए उत्सुक होता है उसे सर्वप्रथम क्या करना चाहिए? इसका उल्लेख करते हुए कहा है --
आपिच्छ बंधुवग्गं विमोइदो गुरुकलत्तपुत्तेहिं।
आसिज्ज णाणदंसणचरित्ततववीरियासारं ।।२।। बंधुवर्गसे पूछकर तथा माता पिता स्त्री पुत्रोंसे छुटकारा पाकर ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य इन पाँच आचारोंको प्राप्त करें। बंधुवर्ग तथा माता-पिता आदि गुरुजनोंसे किस प्रकार आज्ञा प्राप्त करे इसका वर्णन अमृतचंद्र स्वामीने बहुत ही सुंदर किया है --
'एवं बन्धुवर्गमापृच्छते-- अहो इदंजनशरीरबन्धुवर्गवर्तिन आत्मानः अस्य जीवस्य आत्मा न किञ्चिदपि युष्माकं भवतीति निश्चयेन यूयं जानीत। तत आपृष्टा यूयं अयमात्मा अद्योभिन्नज्ञानज्योति: आत्मानमेवात्मनोऽनादिबन्धुमुपसर्पति।' १. अत्राह शिष्यः -- केवलज्ञानोत्पत्तौ मोक्षकारणभूतरत्नत्रयपरिपूर्णतायां सत्यां तस्मिन्नेव क्षणे मोक्षेण भाव्यं सयोग्ययोगिजिनगुणस्थानद्वये कालो नास्तीति। परिहारमाह -- यथाख्यातचारित्रं जातं परं किन्तु परमयथाख्यातं नास्ति। अत्र दृष्टान्तः -- यथा चौरव्यापाराभावेऽपि पुरुषस्य चौरसंसर्गो दोषं जनयति तथा चारित्रविनाशक-चारित्रमोहोदयाभावेऽपि सयोगकेवलिनां निष्क्रियशुद्धात्मचरणविलक्षणो योगत्रयव्यापारश्चारित्रमलं जनयति, योगत्रयगते पुनरयोगिजिने चरमसमयं विहाय शेषघातिकर्मोदयश्चारित्रमलं जनयति, चरमसमये तु मन्दोदये सति चारित्रमलाभावान्मोक्षं गच्छति। -- बृहद्रव्यसंग्रहे गाथा १३.