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बावन
कुंदकुंद-भारती ___ पुद्गलके, परमाणु और स्कंधकी अपेक्षा दो भेद हैं। परमाणु एकप्रदेशी है, एक रूप, एक रस, एक गंध और दो स्पर्शी -- शीत उष्ण अथवा स्निग्ध-रूक्षमेंसे एक एकसे सहित है, शब्दरहित है। तथा दो से लेकर संख्यात, असंख्यात और अनंत परमाणुओंका जो पिंड है वह स्कंध कहलाता है। परमाणु, अपने स्निग्ध और रूक्षगुणके कारण दूसरे परमाणुओंके साथ मिलकर स्कंध अवस्थाको प्राप्त होता है। परमाणुमें पाये जानेवाले स्निग्ध और रूक्ष गुणोंके एकसे लेकर अनंत तक अविभाग प्रतिच्छेद होते हैं। इन सभी प्रतिच्छेदोंमें अगुरुलघुगुणरूप अंतरंग कारण और कालद्रव्यरूप बहिरंग कारणके सहयोगसे षड्गुणी हानि और वृद्धि होती रहती है। हानि चलते चलते जब स्निग्ध और रूक्ष गुणका एक अविभाग प्रतिच्छेद रह जाता है तब वह परमाणु जघन्य गुणवाला परमाणु कहलाता है। ऐसे परमाणुका दूसरे परमाणुके साथ बंध नहीं होता। पुनः वृद्धिका दौर शुरू होनेपर जब वह अविभाग प्रतिच्छेद एकसे बढ़कर अधिक संख्याको प्राप्त हो जाता है तब सामान्य अपेक्षासे फिर उस परमाणुका बंध होने लगता है। दो अधिक गुणवाले परमाणुओंमें बंध योग्यता होती है, गुणोंकी समानता होनेपर सदृश गुणवाले परमाणुओंका बंध नहीं होता। यह बंध स्निग्ध स्निग्धका, रूक्ष रूक्षका, तथा स्निग्ध और रूक्षका भी होता है। अविभाग प्रतिच्छेदोंकी संख्या तीन पाँच आदि विषय हो अथवा दो चार आदि सम हो, दोनों ही अवस्थाओंमें बंध होता है। विशेषता इतनी है कि जघन्य गुणवाले परमाणुओंका बंध नहीं होता। इसके लिए कुंदकुंद स्वामीकी निम्न गाथा है --
णिद्धा वा लुक्खा वा अणुपरिणामा समा व विसमा वा।
समदो दुराधिगा जदि वझंति हि आदि परिहीणा।।७३।। अर्थ ऊपरके विवेचनसे स्पष्ट है।
इसी संदर्भ में अमृतचंद्र स्वामीने ७४ वीं गाथाकी संस्कृत टीकामें निम्नांकित प्राचीन श्लोक 'उक्तं च' कहकर उद्धृत किये हैं --
'णिद्धा णिद्धेण बझंति लुक्खा लुक्खा य पोग्गला। णिद्ध लक्खा य बझंति रूवा रूवी य पोग्गला।।' 'णिद्धस्स णिद्धेण दुराहियेण लुक्खस्स लुक्खस्स दुराहियेण।
णिद्धस्स लुक्खेण हवेइ बंधो जहण्णवज्जे विसमे समे वा।।' पुद्गल परमाणुओंके बंधकी यह प्रक्रिया अनादिकालसे चली आ रही है।
इस प्रकार नोकर्म वर्गणाओंके परस्पर संबंधसे निर्मित शरीरसे ममत्वभाव छोड़कर जो स्थिर रहता है वह कर्म और नोकर्मके संबंधसे दूर हटकर निर्वाण अवस्थाको प्राप्त होता है। नोकर्मरूप शरीरादि परद्रव्योंसे आत्माको पृथक् करनेके लिए उसके शुद्ध स्वरूपपर बार-बार दृष्टि देना चाहिए।
आत्माके साथ कर्मोंका बंध क्यों हो रहा है? इसका समाधान आचार्य महाराजने बहुत ही सारपूर्ण शब्दोंमें दिया है। देखिए --
रत्तो बंधदि कम्मं मुंचदि कम्मेहिं रागरहिदप्पा।
एसो बंधसमासो जीवाणं जाण णिच्छयदो।।८७।। रागी जीव कर्मोंको बांधता है और रागसे रहित आत्मा कर्मोंसे मुक्त होता है, निश्चय नयसे जीवोंके कर्मबंधका यह संक्षिप्त कथन है।
वास्तवमें जीवको रागपरिणति ही कर्मबंधका कारण है, अत: आत्माके वीतराग भावका लक्ष्य कर रागको दूर