Book Title: Kundakunda Bharti
Author(s): Kundkundacharya, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Jinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan

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Page 484
________________ ३८८ कुंदकुंद-भारती पंचगुरुभक्ति मणुयणाइंदसुरधरियछत्तत्तया, पंचकल्लाणसोक्खा वलीपत्तया। दंसणं णाणझाणं अणंतं बलं ते, जिणा दिंतु अहं वरं मंगलं ।।१।। राजा, नागेंद्र और सुरेंद्र जिनपर तीन छत्र धारण करते हैं, तथा जो पंचकल्याणकोंके सुखसमूहको प्राप्त हैं वे जिनेंद्र हमारे लिए उत्कृष्ट मंगलस्वरूप अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख, अनंत बल और उत्कृष्ट ध्यानको देवें।।१।। जेहिं झाणग्गिबाणेहि अइथद्दयं जम्मजरमरणणयरत्तयं दड्ढयं। जेहिं पत्तयं सिवं सासयं ठाणयं ते मह दिंतु सिद्धा वरं णाणयं ।।२।। जिन्होंने ध्यानरूपी अग्निबाणोंसे उत्पन्न मजबूत जन्म जरा और मरणरूपी तीन नगरोंको जला डाला तथा जिन्होंने शाश्वत मोक्षस्थान प्राप्त कर लिया वे सिद्ध भगवान् मुझे उत्तम ज्ञान प्रदान करें।।२।। पंचहाचारपंचग्गिंसंसाहया, वारसंगाइं सुअजलहि अवगाहया। मोक्खलच्छी महंती महं ते सया सूरिणो दिंतु मोक्खं गयासं मया।।३।। जो पाँच आचाररूपी पाँच अग्निओंका साधन करते हैं, द्वादशांगरूपी समुद्रमें अवगाहन करते हैं तथा जो आशाओंसे रहित मोक्षको प्राप्त हुए हैं ऐसे आचार्य परमेष्ठी मेरे लिए सदा महती मोक्षरूपी लक्ष्मीको प्रदान करें।।३।। घोरसंसारभीमाडवीकाणणे, तिक्खवियरालणहपावपंचाणणे। णमग्गाण जीवाण पहदेसिया वंदिमो ते उवज्झाय अम्हे सया।।४।। जिसमें तीक्ष्ण विकराल नखवाला पापरूपी सिंह निवास करता है ऐसे घोर संसाररूपी भयंकर वनमें मार्ग भूले हुए जीवोंको जो मार्ग दिखलाते हैं उन उपाध्याय परमेष्ठियोंको मैं सदा वंदना करता हूँ। उग्गतवचरणकरणेहिं झीणंगया, धम्मवरझाण सुक्केक्कझाणं गया। णिब्भरं तवसिरीए समालिंगया, साहुनो ते महं मोक्खपहमग्गया।।५।। उग्र तपश्चरण करनेसे जिनका शरीर क्षीण हो गया है, जो उत्तम धर्म्य ध्यान और शुक्ल ध्यानको प्राप्त हैं तथा तपरूपी लक्ष्मीके द्वारा जो अत्यंत आलिंगित हैं वे साधु परमेष्ठी मुझे मोक्षमार्गके दर्शक हो।।५।। एण थोत्तेण जो पंचगुरु वंदए गरुयसंसारघणवेल्लि सो छिंदए। लहइ सो सिद्धिसोक्खाइ वरमाणणं, कुणइ कम्मिंधणं पुंजपज्जालणं।।६।।

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