Book Title: Kundakunda Bharti
Author(s): Kundkundacharya, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Jinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan

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Page 485
________________ भाक्तसग्रह जो इस स्तोत्रके द्वारा पंचगुरुओं -- पंचपरमेष्ठियोंकी वंदना करता है, वह अनंत संसाररूपी सघन वेलके काट डालता है, उत्तम जनोंके द्वारा मान्य मोक्षके सुखोंको प्राप्त होता है तथा कर्मरूपी ईंधनके समूहको जला डालता है।।६।। अरुहा सिद्धायरिया, उवज्झाया साहु पंचपरमेट्ठी । एयाण णमुक्कारा, भवे भवे मम सुहं दिंतु।।७।। अर्हत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पाँच परमेष्ठी हैं। इनके लिए किये गये नमस्कार मुझे भवभवमें सुख देवें।।७।। अंचलिका ताजा इच्छामि भंते! पंचमहागुरुभत्तिकाउस्सग्गो कओ तस्सालोचेलं, अट्ठमहापाडिहेरसंजुत्ताणं अरहंताणं, अट्ठगुणसंपण्णाणं उड्डलोयमत्थयम्मि पइट्ठियाणं सिद्धाणं, अट्ठपवयणमाउसंजुत्ताणं आयरियाणं, आयारादिसुयणाणोवदेसयाणं उवज्झायाणं, तिरयगुणपालणरयणाणं सव्वसाहूणं णिच्चकालं अंचेमि, पूजेमि, वंदामि, णमंसामि, दुक्खक्खओ कम्मक्खओ बोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहिमरणं, जिणगुणसंपत्ति होउ मझं।। हे भगवन्! मैंने पंचमहागुरुभक्तिसंबंधी कायोत्सर्ग किया है। उसकी आलोचना करता हूँ।आठ महाप्रातिहार्योंसे सहित अरहंत, आठ गुणोंसे संपन्न तथा ऊर्ध्वलोकके मस्तकपर स्थित सिद्ध, आठ प्रवचनमातृकासे संयुक्त आचार्य, आचारांग आदि श्रुतज्ञानका उपदेश करनेवाले उपाध्याय और रत्नत्रयरूपी गुणोंके पालन करनेमें तत्पर सर्व साधुओंकी मैं नित्यकाल अर्चा करता हूँ, पूजा करता हूँ, वंदना करता हूँ और नमस्कार करता हूँ। इसके फलस्वरूप मेरे दुःखोंका क्षय हो, कर्मोंका क्षय हो, रत्नत्रयकी प्राप्ति हो, सुगतिमें गमन हो, समाधिमरण हो और जिनेंद्र भगवान्के गुणोंकी संप्राप्ति हो।। १२. चैत्यभक्ति अंचलिका इच्छामि भंते चेइयभत्तिकाउस्सग्गो कओ तस्सालोचे। अहलोय-तिरियलोयउड्डलोयम्मि किट्टिमाकिट्टमाणि जाणि जिणचेइयाणि ताणि सव्वाणि तिसु वि लोएसु भवणवासिय-वाणविंतर-जोइसिय-कप्पवासियत्ति चउविहा देवा सपरिवारा दिब्वेण गंधेण,

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