Book Title: Kundakunda Bharti
Author(s): Kundkundacharya, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Jinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan

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Page 470
________________ ३७४ कुदकुद-भारता ५. योगिभक्ति थोस्सामि गुणधराणं, अणयाराणं गुणेहि तच्चेहिं। अंजलिमउलियहत्थो, अभिवंदंतो सविभवेण।।१।। अंजलिद्वारा दोनों हाथोंको मुकुलित कर अपनी सामर्थ्यके अनुसार वंदना करता हुआ मैं गुणोंके धारक अनगारों -- योगियों-- मुनियोंकी परमार्थभूत गुणोंके द्वारा स्तुति करता हूँ। सम्मं चेव य भावे, मिच्छाभावे तहेव बोद्धव्वा। चइऊण मिच्छभावे, सम्मामि उवट्ठिदे वंदे।।२।। मुनि दो प्रकारके जानना चाहिए -- एक, समीचीन भावोंसे संपन्न, -- भावलिंगी और दो, मिथ्याभावसे संपन्न -- द्रव्यलिंगी। इनमें मिथ्याभाववाले -- द्रव्यलिंगियोंको छोड़कर समीचीन भाववाले -- भावलिंगी मुनियोंकी वंदना करता हूँ।।२।। दोदोसविप्पमुक्के, तिदंडविरदे तिसल्लपरिशुद्ध। तिण्णिमगारवरहिदे, तिरयणसुद्धे णमंसामि।।३।। जो राग और द्वेष -- इन दो दोषोंसे रहित हैं, जो मन वचन कायकी प्रवृत्तिरूप तीन दंडोंसे विरत हैं, जो माया मिथ्या और निदान इन तीन शल्योंसे अत्यंत शुद्ध अर्थात् रहित हैं, जो ऋद्धिगारव रसगारव और सातगारव इन तीन गारवोंसे रहित हैं तथा तीन करण -- मन वचन कायकी प्रवृत्तिसे शुद्ध हैं उन मुनियोंको मैं नमस्कार करता हूँ।।३।। चउविहकसायमहणे, चउगइसंसारगमणभयभीए। पंचासवपडिविरदे, पंचिंदियणिज्जिदे वंदे।।४।। जो चार प्रकारकी कषायोंका मनन करनेवाले हैं, जो चतुर्गतिरूप संसारके गमनरूप भयसे भीत हैं, जो मिथ्यात्व आदि पाँच प्रकारके आसवसे विरत हैं और पंच इंद्रियोंको जिन्होंने जीत लिया है ऐसे मुनियोंकी मैं वंदना करता हूँ।।४।। छज्जीवदयापण्णे, छडायदणविवज्जिदे समिदभावे। सत्तभयविप्पमुक्के, सत्ताणभयंकरे वंदे।।५।। जो छह कायके जीवोंपर दयालु हैं, जो छह अनायतनों (कुगुरु, कुदेव, कुधर्म और इनके सेवकों)से रहित हैं, जो शांत भावोंको प्राप्त हैं, जो सात प्रकार (इसलोक, परलोक, अकस्मात्, वेदना, अत्राण, अगुप्ति और मरण)के भयोंसे मुक्त हैं तथा जो जीवोंको अभय प्रदान करनेवाले हैं ऐसे मुनियोंको मैं

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