Book Title: Kundakunda Bharti
Author(s): Kundkundacharya, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Jinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan

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Page 475
________________ मापासप्रह वे आचार्य स्वसमय और परसमयके जानकार होते हैं, आगम और हेतुओंके द्वारा पदार्थोंको जानकर जिनवचनोंके कहनेमें अत्यंत समर्थ होते हैं और शक्ति अथवा प्राणियोंके अनुसार विनय करनेमें समर्थ रहते हैं।।२।। बालगुरुवुड्डसेहे, गिलाणथेरे य खमणसंजुत्ता। वट्टावयगा अण्णे, दुस्सीले चावि जाणित्ता।।३।। वे आचार्य बालक, गुरु, वृद्ध, शैक्ष्य, रोगी और स्थविर मुनियोंके विषयमें क्षमासे सहित होते हैं तथा अन्य दुःशील शिष्योंको जानकर सन्मार्गमें वर्ताते हैं -- लगाते हैं।।३।। वदसमिदिगुत्तिजुत्ता, मुत्तिपहे ठावया पुणो अण्णे। अज्झावयगुणणिलये, साहुगुणेणावि संजुत्ता।।४।। वे आचार्य व्रत, समिति और गुप्तिसे सहित होते हैं, अन्य जीवोंको मुक्तिके मार्गमें लगाते हैं, उपाध्यायोंके गुणोंके स्थान होते हैं तथा साधु परमेष्ठीके गुणोंसे संयुक्त रहते हैं।।४।। उत्तमखमाए पुढवी, पसण्णभावेण अच्छजलसरिसा। कम्मिंधणदहणादो, अगणी वाऊ असंगादो।।५।। वे आचार्य उत्तम क्षमासे पृथिवीके समान, निर्मल भावोंसे स्वच्छ जलके सदृश हैं, कर्मरूपी ईंधनके जलानेसे अग्निस्वरूप है तथा परिग्रहसे रहित होनेके कारण वायुरूप हैं ।।५।। गयणमिव णिरुवलेवा, अक्खोवा सायरुव्व मुणिवसहा। एरिसगुणणिलयाणं, पायं पणमामि सुद्धमणो।।६।। ___ वे मुनिश्रेष्ठ -- आचार्य आकाशकी तरह निर्लेप और सागरकी तरह क्षोभरहित होते हैं। ऐसे गुणोंके घर आचार्य परमेष्ठीके चरणोंको मैं शुद्ध मनसे नमस्कार करता हूँ।।६।। संसारकाणणे पुण, बंभममाणेहि भव्वजीवेहिं। णिव्वाणस्स हु मग्गो, लद्धो तुमं पसाएण।।७।। हे आचार्य! संसाररूपी अटवीमें भ्रमण करनेवाले भव्य जीवोंने आपके प्रसादसे निर्वाणका मार्ग प्राप्त किया है।।७।। अविसुद्धलेस्सरहिया, विसुद्धलेस्साहि परिणदा सुद्धा। रुद्दढे पुण चत्ता, धम्मे सुक्के य संजुत्ता।।८।। वे आचार्य अविशुद्ध अर्थात् कृष्ण, नील और कापोत लेश्यासे रहित तथा विशुद्ध अर्थात पीत, पद्म और शुक्ल लेश्याओंसे युक्त होते हैं। रौद्र तथा आर्तध्यानके त्यागी और धर्म्य तथा शुक्लध्यानसे सहित होते हैं।।८।।

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