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छप्पन
कुंदकुंद-भारती मुक्त शुद्धात्म स्वरूपके उपदेशक महामुनियोंमें गोवत्सके समान वात्सल्यभाव रखते हैं। गुरुजनोंके आनेपर उठकर उनका सत्कार करते हैं, जानेपर अनुगमनके द्वारा उनके प्रति आदर प्रकट करते हैं, दर्शन और ज्ञानका उपदेश देते हैं, शिष्योंको दीक्षा देते हैं, उनका पोषण करते हैं, जिनेंद्रपूजाका उपदेश देते हैं, ऋषि मुनि यति और अनगार इन चार प्रकारके मुनिसंघोंका उपकार करते हैं, अपने पदके अनुकूल उनका वैयावृत्त्य करते हैं, रोग अथवा तृषा आदिसे पीड़ित श्रमणके प्रति आत्मीय भाव प्रकट कर उनकी दुःखनिवृत्तिका प्रयास करते हैं, ग्लान वृद्ध, बालक आदि मुनियोंकी सेवाके निमित्त लौकिक जनों -- गृहस्थोंके साथ संभाषण आदि करते हैं। शुभोपयोगी मुनियोंकी यह प्रशस्त चर्या अपुनर्भव अर्थात् मोक्षका साक्षात् कारण नहीं है, परंतु उससे सांसारिक सुखरूप स्वर्गकी प्राप्ति होती है। उनकी यह प्रशस्त चर्या परंपरासे मोक्षका कारण है।
शुद्धोपयोगी मुनि इन सब विकल्पोंसे दूर हटकर शुद्धात्म स्वरूपके चिंतनमें लीन रहते हैं। करणानुयोगकी पद्धतिसे यह शुद्धोपयोग श्रेणिसे प्रारंभ होता है तथा अपनी उत्कृष्ट सीमापर पहुँचकर कर्मक्षयका कारण होता है।
मुनिमुद्रा धारण कर भी जो लौकिक जनोंके संपर्क में हर्ष मानते हैं तथा उन्मार्गमें प्रवृत्ति करते हैं वे श्रमणाभास हैं तथा अनंत संसारके पात्र होते हैं। भावलिंग सहित मुनिमुद्रा इस जीवको बत्तीस बारसे अधिक धारण नहीं करनी पड़ती, उसीके भीतर वह मोक्षको प्राप्त हो जाता है', परंतु मात्र द्रव्यलिंग सहित मुनिमुद्रा धारण करनेकी संख्या निश्चित नहीं है। अनंत बार भी वह यह पद धारण करता है परंतु उसके द्वारा नवम प्रैवेयकसे अधिकका पद प्राप्त नहीं कर सकता।
अंतमें अमृतचंद्र स्वामीने ४७ नयोंका अवलंबन लेकर आत्माका दिग्दर्शन कराया है। इस तरह प्रवचनसार सचमुच ही प्रवचनसार -- आगमका सार है। इसकी रचना अत्यंत प्रौढ़ सारगर्भित है।
नियमसार
नियमसारमें १८७ गाथाएँ हैं और १२ अधिकार हैं। अधिकारोंके नाम इस प्रकार हैं -- १. जीवाधिकार, २. अजीवाधिकार, ३. शुद्ध भावाधिकार, ४. व्यवहार चारित्राधिकार, ५. परमार्थ प्रतिक्रमणाधिकार, ६. निश्चय प्रत्याख्यानाधिकार, ७. परमालोचनाधिकार, ८. शुद्धनिश्चय प्रायश्चित्ताधिकार, ९. परमसमाध्यधिकार, १०. परम भक्त्यधिकार, ११. निश्चय परमावश्यकाधिकार और १२.शद्धोपयोगाधिकार। १. जीवाधिकार नियमका अर्थ लिखते हुए कुंदकुंदाचार्य लिखते हैं --
णियमेण य कज्जं तण्णियमंणाणदंसणचरित्तं।
विपरीय परिहरत्थं भणिदं खलु सारमिदि वयणं ।।३।। जो नियमसे करनेयोग्य हों उन्हें नियम कहते हैं। नियमसे करनेयोग्य ज्ञान दर्शन और चारित्र हैं। विपरीत ज्ञान, दर्शन और चारित्रका परिहार करनेके लिए नियम शब्दके साथ सार पदका प्रयोग किया है। इस तरह नियमसारका अर्थ सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र है। संस्कृत टीकाकार श्री पद्मप्रभमलधारी देवने भी कहा है --
'नियमशब्दस्तावत् सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रेषु वर्तते, नियमसार इत्यनेन शुद्धरत्नत्रयस्वरूपमुक्तम्।'
चत्तारि वारमुवसमसेढिं समरुहदि खविदकम्मंसो। बत्तीसं वाराइं संजममुवलहिय णिव्वादि।।६१९ ।। -- कर्मकांड