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जब कि ज्ञान और सुख इस आत्मा के निजी स्वाभाविक गुण हैं तत्र प्राकृतिक ( कुदरती ) नियमानुसार यह भी अवश्य मानना पड़ेगा कि इन दोनों गुणों का पूरा विकास ( फैलाव ) भी आत्मा में हो सकता है, क्योंकि जो जिस वस्तु का खास कुदरती गुण होता है वह उसमें कभी पूरे तौर से. प्रगट भी हो सकता है, जैसे कि गर्मी अग्नि का कुदरती गुण है तो उसमें उस उष्णगुण (गर्मी) का विकास बाहरी वार्धक कारणों के न होने पर हो ही जाता है, पानी में शीतगुण (ठंडक ) कुदरती है, तो वह पूरे रूप से कभी उसमें जाहिर हो जाता है । इसी प्रकार मानना होगा कि सुख और ज्ञान भी आत्मा में कभी किसी दशा में पूरी तरह से विकसित हो सकते हैं । यानी यह आत्मा कभी पूरा सुखी और पूरा ज्ञानी हो सकता है ।
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इस संसारी हालत में जीव को पूरा सुखं और पूरा ज्ञान नहीं मिल पाता, क्योंकि संतांरी जीव चाहे कितना ही ज्ञानवान ( इल्मदार ) हो जावे, उसके ज्ञान में कमी बनी ही रहती है। ऐसा कभी नहीं हो पाता कि वह सारी बातों का पूरा जानकार हो गया हो। इसी प्रकार इस संसार में रहता हुआ ऐसा भी कोई जीव नहीं जो कि पूरा सुखी हो जावे यानी - जिसको किसी भी तरह का कोई भी जरा सा भी दुख नं हो । एक मनुष्य महाविद्यालय ( यूनिवर्सिटी ) की सब से ऊंची परीक्षा पास करके कुछ सुखी होता है तो चट उरूको
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