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. यानी-जीवको सुख दुख अन्य कोई नहीं देता है अपने कमाये हुए कर्म ही जीवको सुख दुख देते हैं। जैसे हवामें ध्वंजा अपने
आप ही बांससे एलझ जाती है और अपने आप ही सुलझ भी जाती है।
मतलब यह है कि कर्मों का फल दिलाने के लिये किसी अन्य न्यायाधीश की आवश्यकता नहीं कर्म की प्रेरणा से जीव स.यं (खुद) ऐसे कार्य करने के लिये प्रेरित होता है जिससे उसको अच्छा बुरा फल मिल जाता है। जिस समय शुभ कर्म उदय आता है उस समय जीव उस कर्म की प्रेरणा से ऐसे स्थान पर जा पहुंचता है जहां उसे कुछ सुख हासिल होता है और जब अशुभ कर्म का चक्कर चलता है तब दुखदायक स्थानों पर जा पहुंचता है जिससे कि दुखदायी निमित्तों से उसको दुख मिलता है।
जिस समय कर्म का उदय बलवान होता है उस समय जीव की विवेक शक्ति अपना कार्य नहीं करती इस लिये उस समय जीव कर्म के नशे में कर्म जैसा नचाता है वैसा नाचता है और कभी कर्म का उदय हलका होता है उस समय जीव की शक्तियों का विकास जोरदार होता है। अतः उस समय जीव अगर अपने विवेक से काम ले तो ऐसे काम भी कर सकता है जिससे कर्म की जंजीर कमजोर होकर टूटती चली जावे। ।
सारांश इस सब का निचोड़ यह है कि जीव अपने लिये कर्मकी