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-[३८](विचारों) को न बिगड़ने दें, संभाल कर रखें, अथवा अच्छी दशा में भी बुरे काम कर डालें परन्तु कर्म वान्ध लेने के पीछे फल मिलने की बात हमारे अधिकार से बाहर की बात हो जाती है। वहां तो जैसा कुछ कर्म बांधा है कर्म के नशे से आत्मा स्वयं (खुद) वैसा अच्छा बुरा फल भोगने के लिये पैसे सुख, दुख दायक स्थान पर पहुंच जायगा। जिस योनि में शरीर पाने का भाग्य कमाया है 'गति' नामक कर्म की प्रेरणा से जीव अन्य किसी योनि में न जाकर नया शरीर पाने के लिये उसी योनिमें पहुंचेगा। जैसे नाव पानी में आप चलती है परन्तु मल्लाह जिस ओर उसे चलाना चाहता है, जाती उसी तरफ तथा उसी ठिकाने पर है इसी तरह जीव अपने कर्मों का फल भोगने के लिये शुभ अशुभ योनि में जाता खुद श्राप है किन्तु उसी स्थान पर पहुंचने की प्रेरणा वह गति' कर्म करता है। इसी बातको भिन्न भिन्न कवियों ने निम्नलिखित रूप से बतलाया है
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेप कदाचन ।
यानी-अच्छा बुरा उद्योग करना तेरे अधिकार में है कर्मों का फल मिलना तेरे अधिकार में नहीं है।
कर्म जाहि दारुण दुख देही, मति ताकी पहले हर लेंही। __ यानी-कर्म जिस जीव को भयानक कष्ट देते हैं उसकी त्रुद्धि को पहले ही बिगाड़ देते हैं।
को सुख को दुख देत है, कर्म देत झकझोर, उलझै सुलझै आप ही, धुजा पवन के जोर ।