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पत्थर के एक हजार रुपया मूल्य का ज्ञान पैदा कराने वाली होती तो उस दूसरे मनुष्य को भी ज्ञान हो जाता। इस कारण मानना होगा कि ज्ञान आंखों में नहीं भरा है।
यदि नाक, कान आदि इन्द्रियों को ज्ञान का खजाना माना जावे तो मुर्दा मनुष्य की इन्द्रियों से भी ज्ञान टपकना था, किन्तु ऐसा होता नहीं। इस लिये सिद्ध होता है कि ये इन्द्रियां तो फोटोग्राफ की आंख (लेन्स ) की तरह ही हैं। इन इन्द्रियों पर बाहरी पदार्थों की सिर्फ छाया पड़ती है जैसे फोटोग्राफ के शीशे पर पड़ती है। ज्ञान उस आत्मा की ही निजी चीज है जो कि इस शरीर में बैठा हुआ है। ये इन्द्रियां
माष्टर पुस्तक आदि चीजें उस आत्मा के ज्ञान को केवल • उत्तेजना देने वाले हैं। यानी ज्ञान आत्माका ही निजी स्वाभाविक गुण है।
इस प्रकार यहां पर यह बात अच्छी तरह सिद्ध होगई कि ज्ञान और सुख इस जीव के (आत्मा के ) ही निजी गुण हैं
और इस कारण वे दोनों केवल आत्मा के भीतर ही पाये जाते हैं। बाहरी पदार्थों के निमित्त से सिर्फ वे थोड़े बहुत कभी कहीं पर प्रगट (जाहिर ) हो जाते हैं। उन दोनों गुणों के सिवाय शान्ति, वीर्य ( ताकत ) आदि और अनेक गुण ऐसे हैं जो कि इस आत्मा में कुदरती रूप से पाये जाते हैं। उनका विवेचन भी बहुत लम्बा चौड़ा है। इसलिये उसको यहीं पर रोई कर अब अपने विषय पर आते हैं।