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अपनी आजीविका (रोजगार ) की चिन्ता लग जाती है। आजीविका मिल गई तो वृद्धि (तरक्की) की चिन्ता सवार हो जाती है। पुत्र उत्पन्न हुआ कुछ आनन्द मिला तो उसके पीछे उसके पालने की तकलीफ सामने आ जाती है। मतलव यह है कि किसी भी दशा में वह पूर्ण सुखी नहीं हो पाता। .
इसका कारण क्या है ? सुख और ज्ञान आत्मा के. निजी स्वाभाविक गुण होते हुए भी क्यों नहीं संसारी आत्मा में वे पूरी तरह से प्रगट हो पाते हैं ? जब कि इस प्रश्न पर विचार करते हैं तब पता चलता है कि जीव के ऊपर कोई ऐसा परदा पड़ा हुआ है जो कि उसके इन गुणों को ढके हुए है, पूरा प्रगट नहीं होने देता। जिस प्रकार आग के ऊपर कुछ राख डाल देवे तो उस आग की गर्मी पूरी तरह प्रगट नहीं होने पाती अथवा सूर्य के नीचे जब बहुत से बादल आजाते है तब उसका प्रकाश ( उजाला) और. गर्मी -पूरी तौर से प्रगट नहीं होती । या जैसे खान से निकाला हुआ सोना मैल, पत्थर, मिट्टी आदि से छिपा होता है उसकी कुछ चमक दीखती है और शेष नजर नहीं आती; अथवा जिस प्रकार 'जाल में फंसा हुआ सिंह अपनी शक्ति को नहीं दिखा. सकता । इसी प्रकार यह संसारी. जीव किसी ऐसे जाल में फंसा : हुआ है जो कि इसके ज्ञान, सुख आदि गुणों को दबाये हुए है, उसकी स्वतन्त्रता (आजादी). को प्रगट नहीं होने देतापराधीन (गुलाम ) बनाये हुए है।