Book Title: Karma Siddhant Parichaya
Author(s): Ajit Kumar
Publisher: Ajit Kumar

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Page 38
________________ -[३०] वखेड़ा है, यदि मैं इनका मतलब न साधू तो ये सब मेरा साथ छोड़ देंगे, न कोई साथ आया था, न कोई साथ जावेगा, फिर मुझे इनके लिये मायाप्रपंच, पाप, कूट कपट करना ठीक नहीं यदि मैं इन झंझटों से अलग हो जाऊं तो बहुत सी चिन्ताओं तथा प्राकुलताओंसे और पापोंसे हलका हो जाऊंगा, इत्यादि।" तब उसको आत्मावत सत्य ज्ञान होता है उस समय वह जीव निश्चय समझ लेता है कि आत्मा जिस शरीर में रहता है वह शरीर भी उसका निजी पदार्थ नहीं वह उससे भी जुदा है फिर संसारकी अन्य दूसरी चीजें तो उसकी अपनी कैसे हो सकती हैं। आत्मा के इस सत्यविश्वास को जैनदर्शन में सम्यग्दर्शन (Right belief-सही यकीन) कहते हैं और उस भेदविज्ञान को सम्यग्ज्ञान (Right knorldge-सच्चाइल्म) कहते हैं। जैसे किसी सेठको अपने मुनीम की वेईमानी का विश्वास हो जाये तो वह चतुर सेठ ऊपर से मुनीम के साथ प्रेम रखता हुआ भी भीतर से उससे नफरत करता है और इसी कारण आगे के लिये उसके हाथों मोटी रकमें सोंपना बन्द कर देता है चाल हिसाव भी धीरे २ उससे लेता जाता है। इसी प्रकार जिस जीव को आत्माके स्वरूप का तथा शरीर, पुत्र, मित्र आदि के पृथक्त्व (जुदेपन ) का विश्वास तथा भेदज्ञान हो जाता है । तब वह या तो गृहस्थाश्रम छोड़ कर साधु हो जाता है अथवा लाचारी से इतना त्याग नहीं कर सकता तो गृहस्थ आश्रम में . रहता हुआ भी घर धन्धे के काम ऊपरे-मन से करता है दिल

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