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है जिससे वह आगामी समय में सुख पाता है । और जिस समय जीव हिंसा, झूठ, धोखेबाजी, व्यभिचार, क्रोध, अभिमान लोभ, अन्याय, अत्याचार करता है तब उसके पाप कर्मों में रस बढ़ता है यानी वे ज्यादा मजबूत होते जाते हैं जिसका नतीजा आगे चल कर बुरा भोगना पड़ता है |
स्थिति और अनुभाग
पीछे यह बतलाया जा चुका है कि मानसिक विचार, वचन की धारा और शरीर की क्रिया जिस उद्देश ( इरादे या मंशा ) के अनुसार होती है आकर्षित ( खींचे हुए ) कार्माण स्कन्धों में उसी तरह का सुधार, बिगाड़, भला बुरा करने का असर पड़ता है। यहां पर एक यह बात ध्यान में और रखनी चाहिये कि जीव जो भी काम करता है वह या तो तीव्रता (गहरी दिलचस्पी ) से करता है, या मंद रूपसे यानी वेमना (दिलचस्पी न लेकर ) करता है इस बात का प्रभाव भी उस खींचे हुए और दूध पानी की तरह अपने आत्मा के साथ मिलाये हुए कर्म पर पड़ता है । तदनुसार उस कर्म में थोड़े या बहुत समय तक, कम या अधिक सुख दुख आदि फल देने की शक्ति पड़ जाती है ।
जैसे एक मनुष्य अपना बदला लेने के लिये बड़े क्रोध के साथ किसी को मार रहा है उस मनुष्य द्वारा कमाये हुए 'साता वेदनीय' कर्म में लंबे समय तक, बहुत ज्यादा दुख देने का असर पड़ेगा और जो मनुष्य अपनी नौकरी की खातिर अपने मालिक की आज्ञा से लाचार होकर किसी को मार रहा है वह भी