Book Title: Kalpsutram
Author(s): Vinayvijay Gani
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 573
________________ क्खियस्स प्रत्याख्यातभक्तस्य अनशनिन इत्यर्थस्तस्यापि एकं उष्णोदकं कल्पते, तदपि असिक्थं तदपि परिपूतं वस्त्रगलितं, अपरिपूते तृणादेर्गले लगनात्, तदपि परिमितं, अन्यथाऽजीर्णं स्यात्, तदपि बहुसंपूर्ण वियडे पडिगाहित्तए, सेविय णं असित्थे, नो चेव णं ससित्थे, सेविय णं परिपूए, नो चेवणं अपरिपूर, सेविय णं परिमिए, नो चेव णं अपरिमिए, सेविय णं बहुसंपणे, नो चेव णं अबहुसंपणे ॥ २५ ॥ वासावासं प० संखादत्तियस्स भिक्खुस्स कप्पंति पंच दत्तीओ भोयणस्स पडिगाहित्तए, पंच पाणगस्स | अहवा चत्तारि भोअ मीषदपरिसमाप्तं संपूर्णं, अतिस्तोके हि तृण्मात्रस्यापि नोपशम इति ॥२५॥ वासावासं इत्यादितः पविसित्तए | इति यावत् तत्र संखादत्तियस्स दत्तिसंख्याकारिणो भिक्षोः, दत्तिपरिमाणवत इत्यर्थः, तत्र दत्तिशब्देन

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