Book Title: Kalpsutram
Author(s): Vinayvijay Gani
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 578
________________ सुबोधि० ॥२८२।। कल्पसूत्र- त्वात्कदाचिदनुपयोगोऽपि भवति ॥२९॥ उक्तमेवार्थ निगमयन्नाह-वासावासं इत्यादितः पविसित्तए इति यावत् , तत्र कणगफुसियमित्तंपि कणो लेशस्तन्मानं कं पानीयं कणकं तस्य फुसिआ फुसारमात्रं | तस्मिन्नपि निपतति जिनकल्पिकादेर्भिक्षायै गंतुं न कल्पते ॥३०॥ ऊक्तः पाणिपात्रविधिः ॥ अथ पात्र वासं प०पाणिपडिग्गहियस्स भिक्खस्स जं किंचि कणगफसिअमित्तंपि निवडइ नो से कप्पइ गा०भ०पा०नि०प० ॥३०॥ वासावासं प०पडिग्गहधारिस्स भिक्खुस्स नोकप्पइ वग्घारिअवुट्टिकायंसि गाहावइकुलं भ० पा०नि०प०। कप्पइ से अप्पट्टिकायंसि संतरुत्तरंसि गाहा०भ०पा०नि० धारिणो विधिमाह- वासावासं इत्यादितः पविसित्तए इति यावत् , तत्र पडिग्गहधारिस्स पात्रधारिणः ॥२८२॥ । स्थविरकल्पिकादेः वग्धारिअवुट्टिकायंसि अछिन्नधारावृष्टिर्यस्यां वर्षाकल्पो नीवं वा श्रवति, कल्पं वा 5 SALARAKESAMACHAR

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