Book Title: Kalpsutram
Author(s): Vinayvijay Gani
Publisher: Atmanand Jain Sabha
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| सर्वमापृच्छयैव कर्तव्यमिति तत्वं, एवं गामाणुगामं दूहजित्तपत्ति ग्रामानुग्रामं हिंडितुं भिक्षाद्यर्थ | ग्लानादिकारणे वा, अन्यथा वर्षासु प्रामानुग्रामहिंडनमनुचितमेव ॥ ४७ ॥ द्वितीये विकृत्याहारसूत्रे
वासावासं प०भिक्खू इच्छिज्जा अण्णयरिं विगहूं आहारित्तए, नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव जं वा पुरओ काउं विहरइ, कप्पइ से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव आहारित्तए । इच्छामि णं भंते! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे अण्णयरिं विगई आहारित्तए, तं एवइयं वा एवइखुत्तो वा, ते य से वियरिजा, एवं से कप्पइ अण्णयरिं विगई आहारित्तए, ते य से नो वियरेजा, एवं से नो कप्पइ अण्णयरिं विगई आहारित्तए, से किमाहु ?
तं एवइयंति तां विकृतिं एतावर्ती एवइखुत्तोत्ति एतावतो वारान् तेअ से इत्यादि - यदा ते तस्य वितरंति

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