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धर्म और आधुनिक विज्ञान
२५ के लिये विज्ञान एक सीमित और अपर्याप्त साधन है. मनोविज्ञान और परामनोविज्ञान के विकास से अचेतन मन की अनेक प्रक्रियाएँ, पुनर्जन्म और परलोक से संबंधित अनेक तथ्य और क्लेयरवॉयेन्स, क्लेपरऑडियेन्स, टेलिपैथी आदि अनेक ऐसी बातें प्रकाश में आयी जिनसे प्रकट होता है कि अनेक अगोचर रहस्यपूर्ण शक्तियां और प्रक्रियाएँ कार्य कर रही हैं. अब मनोविज्ञान का उद्देश मनुष्य को पशु समझकर उसके सारे कार्यों की मूल प्रवृत्तियों के आधार पर व्याख्या कर देना नहीं है, वरन् उसका उद्देश्य मनुष्य के अचेतन मन की गहराइयों में बैठकर उसमें परिष्कार लाना एवं दैवत्व का विकास करना है. विज्ञान के प्रभाव से अन्य मानविकी विद्याओं की भांति धर्म के अध्ययन में वैज्ञानिक पद्धति अपनायी जाने लगी और धर्म को आत्मविज्ञान का रूप देने का प्रयास हो रहा है. झुकाव बढ़ता जा रहा है क्योंकि धर्म से जो लाभ हैं वे वहाँ के लोगों को भी दिखते हैं. धर्म क्या है; धर्म क्या कर सकता है और क्या नहीं कर सकता, इसके विषय में स्पष्ट धारणा होनी आवश्यक है. धर्म आर्थिक और राजनीतिक समानता की स्थापना नहीं कर सकता, असमानता दूर नहीं कर सकता, कृषि और उद्योगों में क्रांति नहीं ला सकता. ये सारे कार्य तो हमें बहिर्मुखी संघर्ष के द्वारा करने होंगे. धर्म अन्तर्मुखी साधना है, वह आत्मा को शान्ति देता है. धर्म जीवन के शाश्वत जीवन मूल्यों की खोज है; धर्म जीवन की दिशा का बोध कराता है, उस दिशा में चलने और समाज को चलाने का कार्य-प्रयत्न सापेक्ष है. धर्म मानव के अन्तर्जगत की वस्तु है, वह आन्तरिक व्यक्तित्व का निर्माण करता है. बाह्य जगत के सारे कार्य तो बहिर्मुखी संघर्ष और चेष्टाओं के द्वारा ही संभव ह्ये सकते हैं.
यह सच है कि अशान्ति और असन्तोष का कारण बहुंत दूर तक अभाव और विषमताएँ हैं, किन्तु जहाँ अभाव और विषताएँ कम हैं वहाँ भी मानसिक अशान्ति, मनोरोग, असन्तोष
और अपराध कम नहीं हैं. इससे यह प्रकट होता है कि मानसिक अशान्ति और असन्तुलन का कारण केवल अभाव और विषमताएँ नहीं हैं, वरन् अचेतन मन में व्याप्त अस्थिरता, उत्तेजना और जीवन मूल्यों का अभाव है; यह स्थिति औद्योगिक सम्पन्नता के परिणाम स्वरूप एवं परम्परागत धार्मिक विरासत के अभाव में उत्पन्न हुई है. आत्मनिर्माण के महत् लक्ष्य से विमुख होकर अवांतर कार्यों में प्रवृत्त होने वाली युवाशक्ति के मूल में यही अचेतन मन की अस्थिरता एवं उत्तेजना है. हमारे अधिकांश कार्य तर्क और विवेक से प्रेरित न होकर अचेतन मन के द्वारा प्रेरित होते हैं. आर्थिक सामाजिक समानता के लिए भी मानसिक स्थिरता और सन्तुलन आवश्यक है. अचेतन मन का नियमन और परिष्कार उत्तेजक तत्त्वों से दूर रहकर उच्चतर जीवन-मूल्यों के मनन एवं क्रियान्वयन के द्वारा होता है; इस दृष्टि से धर्म का बड़ा महत्त्व होता है. मनुष्य में शक्ति, सुधार और प्रेरणात्मकता लाने के लिए मनोवैज्ञानिक शक्ति के रूप में धर्म का महत्त्व कितना अधिक है, इसे नास्तिक भी स्वीकार कर सकते हैं. राजनीति मनुष्यों का निर्माण नहीं करती, वरन् उसे जैसे मनुष्य मिलते हैं उन्हीं में वह व्यवस्था लाती है, मनुष्य जितने संयत और श्रेष्ठ होंगे, राजनीतिक व्यवस्था उतनी ही सफल होगी. अतः राजनीतिक व्यवस्था की स्थापना करना जितना महत्त्वपूर्ण कार्य है, उससे कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण कार्य
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