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मितभाषिता : एक मौन साधना पोजिटिव उत्तर देंगे.
दूसरी बार प्रतिनिधि मण्डल उनके पास आग्रह करने गया. आग्रह मानकर महात्मा पधारे. उसी स्थान पर उन्होंने श्रोताओं के सामने फिर वही प्रश्न किया :- “क्या आपको आत्मा-परमात्मा पर है विश्वास ?" लोगों ने एक स्वर से कहा :- “हां, है हमें विश्वास." महात्मा ने कहा :- “तब तो मुझे कुछ भी बोलने की जरुरत नहीं है; क्यों कि मेरा प्रवचन आत्मा-परमात्मा पर विश्वास जगाने के ही लिए होता है. वह विश्वास जब आप सबके भीतर पहले से मौजूद है तो मैं क्या कहूँ?" इसके बाद “सर्व मंगल मांगल्यम्” और प्रस्थान.
श्रोताओं को तो किसी तरह प्रवचन सुनमा ही था; इसलिए उन्होंने परस्पर मीटिंग करके यह निर्णय लिया कि यदि महात्मा ने पुनः यही प्रश्न उठाया तो आधे लोग कहेंगे - “विश्वास है" और आधे लोग कहेंगे - “विश्वास नहीं है" इस पर उन्हें प्रवचन देना ही पड़ेगा.
तीसरी बार आग्रह करने पर फिर महात्मा चले आये. उसी स्थान पर बैठ कर उन्होंने वही प्रश्न किया. श्रोताओं के अलग-अलग उत्तर सुन कर महात्मा ने कहा :- "यह तो और भी अच्छी बात है. जिन आधे लोगों को विश्वास है, वे उन लोगों को समझा दें, जिनको विश्वास नहीं है. मैं क्या कहूँ?" ऐसा कह कर, माँगलिक सुना कर वे जहाँ से आये थे, वहीं चले गये.
लोग समझ गये कि स्वयं चिन्तन करने पर ही वास्तविक ज्ञान प्राप्त हो सकता है. प्रवचन से यही लाभ होता है कि हमें चिन्तन करने की प्रेरणा मिल जाती है. यही समझाना महात्मा का उद्देश्य भी था, जिसे उन्हेंने एक-एक मिनट के तीन प्रवचनों से पूरा किया.
शब्दो की प्रेरणा : एक बार किसी युद्ध में बुरी तरह से परास्त चाणक्य और चन्द्रगुप्त किसी गांव में एक घर पर जल पीने गये. घर में उस समय एक बालक खिचड़ी खाने बैठा था और गर्म खिचड़ी से ऊंगलिया जल जाने के कारण रो रहा था, बालक की मां ने उससे कहा :- "तू भी चाणक्य और चन्द्रगुप्त जैसा मूर्ख है!"
मां से जल पीने के बाद चाणक्य और चन्द्रगुप्त ने पूछा :- “माताजी! चाणक्य और चन्द्रगुप्त ने कौसीन-सी मूर्खता की और उस मूर्खता का बालक से क्या सम्बन्ध है? कृपया समझा कर कहिये."
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