Book Title: Jinsahastranamstotram
Author(s): Jinsenacharya, Pramila Jain
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan

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Page 5
________________ *प्रस्तावना * महापुराण के दो खण्ड हैं, प्रथम आदिपुराण या पूर्वपुराण और द्वितीय उत्तरपुराण । आदिपुराण ४७ पर्यों में पूर्ण होता है, जिसके ४२ पर्व पूर्ण तथा ४३वें पर्व के ३ श्लोक भगवज्जिनसेनाचार्य द्वारा रचित हैं। अवशिष्ट ५ पर्व तथा उत्तरपुराण श्री जिनसेनाचार्य के प्रमुख शिष्टा श्री गुणभद्राचार्य द्वारा विरचित हैं। आदिपुराण पुराणकाल के सन्धिकाल की रचना है अतः यह न केवल पुराणग्रन्थ है अपितु काव्यग्रन्ध भी है, महाकाव्य है। महाकाव्य के जो लक्षण हैं वे सब इसमें घटित होते हैं। आचार्य जिनसेन और गुणभद्र : दोनों ही आचार्य मूलसंध के उस पंचस्तूप नामक अन्वय में हुए हैं जो आगे चलकर सेनान्बय या सेनसंघ नाम से प्रसिद्ध हुआ। जिनसेन स्वामी के गुरु वीरसेन ने तो अपना वंश पंचस्तूपान्वय ही लिखा है परन्तु गुणभद्राचार्य ने सेनान्वय लिखा है। इन्द्रनन्दी ने अपने 'श्रुतावतार' में लिखा है कि जो मुनि पंचस्तूप निवास से आये, उनमें किन्हीं को सेन और किन्हीं को भद्र-नाम दिया गया। तथा कोई आचार्य ऐसा भी कहते हैं कि जो गुहाओं से आये उन्हें नन्दी, जो अशोक वन से आये उन्हें देव और जो पंचस्तूप से आये उन्हें सेन नाम दिया गया। श्रुतावतार के उक्त उल्लेख से यह सिद्ध होता है कि सेनान्त और भद्रान्त नाम वाले मुनियों का समूह ही आगे चलकर सेनान्वय या सेनसंघ कहलाने लगा। ___ वंश-परम्परा - अभी तक के अनुसन्धान से इनके गुरुवंश की परम्परा आर्य चन्द्रसेन तक पहुँच सकी है अर्थात् चन्द्रसेन के शिष्य आर्यनन्दी, उनके शिष्य वीरसेन, वीरसेन के जिनसेन, जिनसेन के गुणभद्र और गुणभद्र के शिष्य लोकसेन थे। यद्यपि आत्मानुशासन के संस्कृत टीकाकार प्रभाचन्द्र ने उपोद्घात में लिखा है कि बड़े धर्मभाई विषय-ज्यामुग्धबुद्धि लोकसेन को सम्बोधन देने के व्याज से समस्त प्राणियों के उपकारक सवीन मार्ग के दिखलाने की इच्छा से श्री गुणभद्रदेव ने यह ग्रन्थ लिखा, परन्तु उत्तरपुराण की प्रशस्ति को देखते हुए टीकाकार का उक्त उल्लेख ठीक नहीं मालूम होता क्योंकि उसमें उन्होंने लोकसेन को अपना मुख्य शिष्य बतलाया है। वीरसेन स्वामी के जिनसेन के सिवाय दशरथपुर नाम के एक शिष्य और थे। श्रीगुणभद्र स्वामी ने उत्तरपुराण में अपने आपको उक्त दोनों गुरुओं का शिष्य बताया है।

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