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जयमाला
मुक्तः पद्धरि छंद जय अभिनंदन जिनवर महान, गुण गाता है सारा जहान। हे त्यागमूर्ति वात्सल्य धाम, तीर्थंकर को शत-शत प्रणाम ।।1।।
चौथे तीर्थंकर आप नाथ, पाकर वसुंधरा हुई सनाथ। सोलह वर्षों तक मौन रहे, फिर क्षपक श्रेणी आरूढ़ हुये।।2।।
घाति क्षय कर अरिहंत हुये, भवि जीवों के शिवपंथ हुये। प्रभु तीन अधिक थे शत गणधर, श्री वज्रनाभि पहले श्रुतधर ।।3।। ___ थी मुख्य मेरूषेणा आर्या, सुर नर पशु गण दर्शन पाया। करके विहार उपकार किया, भव्यों का प्रभु कल्याण किया।।4।।
प्रभु आप नंत गुण के भंडार, वंदन से हो सब दुःख क्षार। प्रभु की अमृत झरणी वाणी, है परम् प्रमाणी जिनवाणी ।।5।।
निज आत्म तव है उपादेय, है भाव विकारी नित्य हेय। है जीव तव उपयोगमयी, बिन चेतन तव अजीव सही ॥6॥
आश्रव औ बंध अहितकारी, संवर औ निर्जर हितकारी। जो रत्नत्रय आश्रय लेते, वे मुक्तिरमा को वर लेते।।7॥ प्रभु ने इस विध उपदेश दिया, पथ भूलों को संदेश दिया। मैं त्याग करूँ बहिरातम का, औ लक्ष्य करूँ परमातम का ॥8॥
अंतर आतम होकर स्वामी, बन जाऊँ मैं शिवपथ गामी। जय-जय जिनवर महिमा निधान, भगवन् कर दो अब कर्म हान।।9॥
तुम कर्म विजेता जगन्नाथ, मेरी भव व्याधि हरो नाथ। नहीं माप सके जलधि अथाह, जल बिम्ब पकड़ने का प्रयास ॥10॥ ___ त्यों गुण वर्णन करना जिनवर, है अल्पमति मेरी प्रभुवर। मैं करूँ भाव से पद प्रणाम, प्रभु देना निश्चित मुक्तिधाम ॥11॥
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