________________
सब धर्मो में श्रेष्ठ धर्म है, ब्रह्मचर्य सुख दाता है।। दिव्य वचन सुन लगा मुझे अब, भव सागर का अंत हुआ। शरण आपकी जो भी आया, भक्ति से भगवंत हुआ।।6।। प्रभु आपकी धर्म सभा में, अट्टासी गणधर स्वामी। श्रीघोषा थी प्रमुख आर्या, बुद्धिवीर्य श्रोता नामी।। कर्म अंत करने को स्वामी, शरण आपकी आया हूँ। पंच परावर्तन मिट जाये, यही आस ले आया हूँ।7।
सोरठाः नाथ निरंजन आप, पुष्पदंत जिनराज जी।
हो जाऊँ निष्पाप, कर्म नष्ट कर दो प्रभो ॥8॥ ॐ हीं श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा।
घत्ता
श्री सुविधि जिनेशा, हे परमेशा, भव-भव का संताप हरो। निज पूज रचाऊँ, ध्यान लगाऊँ, 'विद्यासागर पूर्ण' करो।।
॥ इत्याशीर्वादः॥
84