Book Title: Jin Pujan
Author(s): ZZZ Unknown
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 181
________________ मेरे चेतन गृह में घनघोर अँधेरा है। नहीं सूझ रहा आतम, मिथ्यातम घेरा है।। रत्नत्रय दीपजला, निज ज्ञान जगे स्वामी। प्रभु वीर दरश देना, शरणा दो अभिरामी।।6।। ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। उपयोग भटकता है, कैसे निज में लाऊँ। औरों को समझाऊँ, पर खुद न समझ पाऊः।। प्रभु ध्यान धूप पाकर, सब कर्म नशें स्वामी। प्रभु वीर दरश देना, शरणा दो अभिरामी।।7। ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा कर्मों के फल खाकर, बेहोश हुआ जग में। जब से प्रभु दर्श किया, निज दर्श हुआ निज में।। चऊ गति के भ्रमण मिटा, शिव फल पाऊँ स्वामी। - प्रभु वीर दरश देना, शरणा दो अभिरामी।।8।। ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। पर को देखा मैंने, निज को ही ना परखा। अब सुख अनंत पाने, संबंध तनँ पर का।। ज्ञायक पद पा जाऊँ, होशक्ति प्रगट स्वामी। प्रभु वीर दरश देना, शरणा दो अभिरामी।।9।। ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। 181

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