Book Title: Jin Pujan
Author(s): ZZZ Unknown
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 158
________________ ऊध्वं मध्य पाताल लोक में, गूंजा प्रभु का यश-जयगान।।3।। रत्नत्रय आभूषण पहने, जड़ आभूषणका क्य काम। दोष अठारा रहित हुए है, वस्त्रा शस्त्र का लेश ननाम।। तीन लोक के स्वयं मुकुट हो, स्वर्ण मुकुट का क्या है काम। नाथ त्रिलोकी कहलाते हो, फिर भी रहते हो निज धाम।।4।। भक्त निहारे प्रभु आपको, आप निहारे अपनी ओर। आप हुए निर्मोही स्वामी, अनंत गुण का कहीं नछोर। धन्य आपकी वीतरागता, नहीं भकत को कुछ देते। फिर भी भक्त शरण में आकर, सब कुछ तुमसे पा लेते।।5।। प्रभु आपके वचन श्रवण कर, आत्म ज्ञान को पाते हैं। रत्नत्रय धारण कर साध्क, शिव पथ में लग जाते हैं।। चक्री इंद्रादिक के वभव, पुण्य सातिशय से मिलते। नहीं चाहते किंतु पुण्य को, ज्ञानी निज में रहते।।6।। काल अनंता बीत गया है, मोह शनीचर सता रहा। लाखों को प्रभपार किया है, भक्त हृदय यह बता रहा।। नाथ अपकी महिमा को मैं, अल्पबुद्धि कैसे गाऊँ। यही भावना भाता हूँ निज का, निज में दर्शन पाऊँ।।7।। दोहा प्रभो भक्त मैं आपका, दुख से हूँ संयुक्त। एक नजर कर दो प्रभो, होऊँ दुख से मुक्त।।8।। ऊँ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा। घत्ता मुनिसुव्रत स्वामी, हो जगनामी, भव-भव का संताप हरो। निजपूज रचाऊँ, ध्यान लगाऊँ, 'विद्यासागर पूर्ण' हरो।। ॥ इत्याशीर्वादः॥ 158

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