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पर के दोष दिखे हैं लेकिन निज के दोष न दिख पाये। अंतर मं है घना अँधेरा सत्य स्वरूप नप दिख पाये।। ज्ञान दीप प्रगटाओ स्वामी, मिथ्यातम का नाश करो।
नमिनाथ प्रभु दर्शन देकर, ज्ञान वेदी पर वास करो।।6।। ऊँ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
ये कर्म बहत दुख देते हैं कर्मों को दोष दिया करता। स्वयं नहीं पुरुषार्थ जगाया भाव शुद्ध भी ना करता।।
धूप समर्पित करता हूँ अब, दुर्भावों का नाश करो। नमिनाथ प्रभु दर्शन देकर, ज्ञान वेदी पर वास करो।।7।। ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
भाव शुभशुभ जब करता हूँ पुण्य-पाप फल पाता हूँ। कर्म उदय में जब आते हैं व्याकुल हो फल सहता हूँ।। मोक्ष निवासी जिनवर मेरे, कर्म फलों का नाश करो।
नमिनाथ प्रभु दर्शन देकर, ज्ञान वेदी पर वास करो।।8।। ऊँ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
सारे पद जग के झूठे हैं शाश्वत ना मिट जाते हैं। शिवपद ही मन को भाया प्रभु तुम सा कहीं न पाते हैं।। मद का काम नहीं शिवपथ में मम मद पूर्ण विनाश करो।
नमिनाथ प्रभ दर्शन देकर, ज्ञान वेदी पर वास करो।।9॥ ऊँ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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