Book Title: Jin Dharm Vivechan
Author(s): Yashpal Jain, Rakesh Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 13
________________ जिनधर्म-विवेचन विश्व-विवेचन अल्प मात्रा या विशेष मात्रा में प्रगट हो। अब, हमें यह निश्चय करना चाहिए कि ये दोनों एक ही पदार्थ के गुण हैं या भिन्न-भिन्न पदार्थों के? (४) यहाँ जिस मनुष्य को हमने देखा, उसके सम्बन्ध में निम्न प्रकार से दृष्टान्त देते हैं - १. उस मनुष्य का हाथ चाकू आदि से कट गया और शरीर से रक्त (खून) निकलने लगा। २. उस मनुष्य ने रक्त निकलता हुआ जाना और वह रक्त तुरन्त ही बन्द हो जाए तो अच्छा - ऐसी तीव्र भावना भायी। ३. लेकिन उस समय रक्त ज्यादा निकलने लगा और अनेक उपाय करने पर भी उसके बन्द होने में बहुत समय लगा। ४. रक्त बन्द होने के बाद हमें जल्दी आराम हो जाए - ऐसी उस मनुष्य ने निरन्तर भावना करना जारी रखा। ५. किन्तु भावना के अनुसार परिणाम निकलने के बदले उतना भाग सड़ता गया। ६. उस मनुष्य को शरीर में ममत्व होने के कारण बहुत दुःख हुआ, उसे उस दुःख का अनुभव भी हुआ। ७. दूसरे सगे-सम्बन्धियों ने भी यह जाना कि उस मनुष्य को दुःख हो रहा है; किन्तु वे उसके दुःख या अनुभव का कुछ भी अंश न ले सके। ८. अन्त में हाथ के सड़े हुए भाग को कटवाना पड़ा। ९. यहाँ उसका शरीर तो कमजोर हुआ, तथापि ज्ञानाभ्यास के बल से उसे धैर्य रहा और शान्ति बढ़ी। १०. यद्यपि वह हाथ कटा, तथापि उस मनुष्य का ज्ञान उतना ही रहा, बल्कि विशेष तत्त्वाभ्यास से वह ज्यादा बढ़ गया; लेकिन बाकी बचा शरीर बहुत कमजोर होता गया तथा वजन भी घटता गया। (५) अब हमें यह जानना है कि उक्त बातें क्या सिद्ध करती हैं - यही कि मनुष्य में विचार शक्ति (Reasoning Faculty) है और वह तो प्रत्येक मनुष्य के अनुभवगम्य है। अब विचार करने पर निम्न सिद्धान्त प्रगट होते हैं : १. शरीर और ज्ञान - दोनों को धारण करनेवाली वस्तुएँ पृथक्-पृथक् पदार्थ हैं । ज्ञान को धारण करने वाली वस्तु ने 'खून तत्क्षण ही बन्द हो जाए तो अच्छा - ऐसी तीव्र इच्छा की; तथापि खून बन्द नहीं हुआ। इतना ही नहीं; बल्कि इच्छा के विरुद्ध शरीर की और खून की अवस्था हुई। २. यदि वे दोनों वस्तुएँ एक ही होती तो जब ज्ञान करनेवाले ने इच्छा की थी, उसी समय खून को बन्द हो जाना चाहिए। ३. ऊपर क्रमांक ४-५ में बताई गई भावना के कारण शरीर का वह भाग भी नहीं सड़ता, इसके विपरीत जिस समय इच्छा की, उस समय तुरन्त ही आराम हो जाता; किन्तु दोनों पृथक् होने से वैसा नहीं हुआ। ४. क्रमांक ६-७ में जो हकीकत बतलाई है, वह सिद्ध करती है कि जिसका हाथ सड़ा है वह और उसके सगे-सम्बन्धी सब स्वतन्त्र हैं। यदि वे एक ही होते तो वे उस मनुष्य का दःख मिलकर या एक होकर भोगते और वह मनुष्य, अपने दुःख का भाग उनको देता अथवा घनिष्ट सम्बन्धीजन, उसका दुःख लेकर उसे स्वयं भोगते; किन्तु ऐसा नहीं बन सकता। अतः यह सिद्ध होता है कि वे भी इस मनुष्य से भिन्न स्वतन्त्र ज्ञानरूप और शरीरसहित व्यक्ति हैं। ५. क्रमांक ८-९ में जो विगत बतलाई है, उससे सिद्ध होता है कि शरीर संयोगी पदार्थ है; इसीलिए हाथ का उतना भाग, उसमें से अलग हो गया। यदि ज्ञान और शरीर, एक अखण्ड पदार्थ होते तो हाथ का टुकड़ा काटकर अलग नहीं किया जा सकता। पुनश्च यह भी सिद्ध होता है कि शरीर से ज्ञान स्वतन्त्र है, क्योंकि शरीर का अमुक भाग कटा; तथापि उतने प्रमाण में ज्ञान कम नहीं हुआ, किन्तु उतना ही रहा। कभी-कभी शरीर कमजोर होता जाता है। लेकिन ज्ञान बढ़ता जाता है। इसप्रकार यह सिद्ध होता है कि शरीर और ज्ञान, दोनों स्वतन्त्र वस्तुएँ हैं। (13)

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