Book Title: Jin Dharm Vivechan
Author(s): Yashpal Jain, Rakesh Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 92
________________ १८२ जिनधर्म-विवेचन ३. आचार्य अमृतचन्द्र ने समयसार परिशिष्ट में ४७ शक्तियों के वर्णन के प्रसंग में शक्ति क्रमांक २४ में प्रदेशत्वशक्ति का वर्णन किया है। वहाँ आचार्य ने इसका नाम नियतप्रदेशत्वशक्ति दिया है। उसका स्वरूप है - "अनादिकाल से संसार-अवस्था में संकोच-विस्तार से लक्षित और सिद्ध-अवस्था में चरमशरीर से किंचित् न्यून-परिमाण तथा लोकाकाश के प्रदेशों की संख्या के बराबर असंख्यात प्रदेशी आत्मा के अवयववाली नियतप्रदेशत्वशक्ति है।" ४. श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव ने अपनी कृति द्रव्यसंग्रह की गाथा २५ में भी छह द्रव्यों के प्रदेशों की संख्या कही है - “एक जीव तथा धर्मअधर्म द्रव्यों में असंख्यात प्रदेश हैं । आकाश में अनन्त प्रदेश हैं। पुद्गल में संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेश हैं तथा प्रत्येक कालद्रव्य, एक प्रदेशवाला है, इसलिए वह कायवान नहीं है।" इन ग्रन्थों को छोड़कर भी प्रवचनसार गाथा १३७ एवं १४४ तथा इन्हीं गाथाओं की टीका में भी प्रदेशों का वर्णन तर्क द्वारा सिद्ध किया गया है, जो मूलतः पठनीय है। यही विषय पंचाध्यायी के प्रथम भाग, श्लोक २८ तथा १८७ में भी मिलेगा। २१५. प्रश्न - 'आकार' शब्द से हमें क्या समझना चाहिए? उत्तर - द्रव्यों की कुछ न कुछ लम्बाई-चौड़ाई विभिन्न आकृतियों में गोल, चौकोण, त्रिकोण, षट्कोण आदि में से कोई न कोई एक आकृति अवश्य होना चाहिए; क्योंकि आकृतिरहित वस्तु हो ही नहीं सकती; भले ही वह आकार छोटा-बड़ा आदि कोई भी हो। २१६. प्रश्न - क्या अमूर्तिक द्रव्यों का भी कोई आकार होता है? उत्तर - अमूर्तिक द्रव्यों का भी आकार अवश्य होता है; परन्तु कतिपय मूर्तिक पुद्गल-स्कन्धों आदि के समान अमूर्तिक द्रव्यों का आकार हमें आँखों से दिखाई नहीं देता। २१७. प्रश्न - द्रव्य का आकार सदैव एक-सा ही रहता है अथवा बदलता भी रहता है? प्रदेशत्वगुण-विवेचन १८३ उत्तर - संसारी जीव और पुद्गल-स्कन्धों का आकार सदा बदलता रहता है। जैसे, एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के समस्त जीव संसारी हैं। उनका उनके शरीर के साथ एकक्षेत्रावगाह सम्बन्ध है। शरीर का आकार छोटा-बड़ा, मोटा-पतला होता रहता है, जिसके कारण जीव का आकार भी सतत बदलता रहता है। दिन भर मनुष्य उठता-बैठता है, सोता-जागता है, अपने शरीर के अंगों का भी अन्य-अन्य कार्यवश हलन-चलन करता रहता है, व्यायाम आदि भी करता है; जिसके कारण मनुष्य का आकार भी बदलता रहता है। यह हमें प्रत्यक्ष ही देखने में आता है। लोक सिद्धपर्याय से परिणमित शुद्धजीव, पुद्गलपरमाणु, कालाणु, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय एवं आकाशद्रव्य का आकार कभी नहीं बदलता है। क्योंकि - १. सिद्ध जीव, अन्तिम पुरुषाकार से किंचित् न्यूनता सहित सिद्धालय में विराजते हैं। वहाँ जीव के आकार बदलने का कोई निमित्तकारण भी नहीं है और उपादान की योग्यता भी उस प्रकार की नहीं होने से अनन्तकाल तक उनका आकार एक जैसा ही बना रहता है। २. परमाणु और कालाणु का आकार एक प्रदेश मात्र ही है; अतः उनका आकार भी सदा एक समान रहता है; क्योंकि प्रदेश का आकार सदैव एक समान माना गया है। ३. धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय लोकाकाश प्रमाण हैं; अतः वे भी सदैव एक ही आकार में रहते हैं। वहाँ आकार बदलने का कोई कारण भी नहीं है। विशालकाय आकाश का भी अनन्त प्रदेशी आकार जैसा है, वैसा ही सदैव बना रहता है। आकाश, दशों दिशाओं में अनन्तता को प्राप्त हैं। २१८. प्रश्न - प्रदेशत्वगुण को न मानने से क्या हानियाँ होती हैं? उत्तर - प्रदेशत्वगुण को न मानने से द्रव्य का कोई आकार सिद्ध नहीं (92)

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