Book Title: Jin Dharm Vivechan
Author(s): Yashpal Jain, Rakesh Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 94
________________ १८६ जिनधर्म-विवेचन का एक ही अर्थ है। यह ज्ञातापना ही सुखी होने का सत्य और परमार्थ तथा एकमेव उपाय है; जिसे अनन्त सर्वज्ञ भगवन्तों ने अनादि से अनन्त जीवों के कल्याण के लिए दिव्यध्वनि द्वारा अनन्त बार कहा/बताया है। ३. अरूपी द्रव्यों का आकार भी भिन्न-भिन्न होने से उनकी भिन्नता का निर्णय होता है। जैसे - धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, अनन्त सिद्ध भगवन्तों का आकार आदि। देखो, धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय, इन दोनों द्रव्यों का आकार समान है, समान होने से एक जैसा भी है, फिर भी दोनों का आकार एक नहीं है; क्योंकि प्रत्येक द्रव्य का प्रदेशत्वगुण पृथक्-पृथक् है। ४. जीव, संसार अवस्था में शरीराकार होने पर भी उसका आकार शरीर के कारण नहीं; अपितु अपने प्रदेशत्वगुण के कारण है। 'द्रव्यसंग्रह' शास्त्र की गाथा क्रमांक २ में जीव को 'सदेहपरिमाणो' कहा है, पर यह कथन व्यवहारनय की अपेक्षा से किया गया है। अतः किसी भी द्रव्य का जो आकार हो, वह मात्र प्रदेशत्वगुण के कारण ही है, अन्य के कारण नहीं; यही स्वीकार करना चाहिए; यही वास्तविक है, काल्पनिक नहीं। ५. सिद्ध भगवान भी जीवद्रव्य हैं, जीव होने से उनमें भी प्रदेशत्वगुण है, इसलिए वे साकार कहे जाते हैं, किन्तु पुद्गल-स्कन्धों के जैसा उनका मूर्त आकार नहीं है, अतः उन्हें निराकार भी कहा जाता है; वास्तव में उनका आकार तो ज्ञानाकार है। ६. विश्व में जितने द्रव्य हैं, उतने ही प्रदेशत्वगुण है। जीव चेतन है; अतः उनका प्रदेशत्वगुण भी चेतन कहा जा सकता है; क्योंकि जीवों के प्रदेशत्वगुण में चेतनागुण का रूप होता है। इसीप्रकार शेष अचेतन द्रव्यों का प्रदेशत्वगुण अचेतन कहे जा सकते हैं। ७. इसीप्रकार क्रियाशील द्रव्यों के प्रदेशत्वगुण सक्रिय और क्रियारहित द्रव्यों के प्रदेशत्वगुण निष्क्रिय कहे जाते हैं। इसप्रकार 'प्रदेशत्वगुण' का १० प्रश्नोत्तर के साथ विवेचन पूर्ण होता है। पर्याय-विवेचन २२१. प्रश्न - जिनधर्म-प्रवेशिका में द्रव्य एवं गुण की परिभाषा देने के बाद पर्याय की परिभाषा क्यों दी गई है? उतर - 'पर्याय' का अर्थ अवस्था है। जीवादि छह द्रव्य और ज्ञानादि एवं स्पर्शादि गुण, पर्याय के बिना रहते ही नहीं हैं; अतः द्रव्य और गुण की परिभाषा जानने के पश्चात् उनकी ही विशेष जानकारी एवं पर्यायों को विस्तार से समझने के लिए पर्याय का वर्णन करना आवश्यक है। पर्याय को जाने बिना द्रव्य और गुण को जानना अधूरा ही रहता है; क्योंकि वस्तु को द्रव्य-पर्यायात्मक कहो अथवा गुण-पर्यायात्मक एक ही बात है। २२२. प्रश्न - पर्याय किसे कहते हैं? उतर - गुणों के कार्य अर्थात् परिणमन को पर्याय कहते हैं। २२३. प्रश्न - गुरु गोपालदासजी बरैया ने पर्याय की जो परिभाषा बताई है, तदनुसार अन्य ग्रन्थों में जो परिभाषाएँ आयी हैं, उनके कुछ आगम-प्रमाण बताइए? उतर - आगम में पर्याय की अनेक परिभाषाएँ आयी हैं; उनमें से कुछ परिभाषाओं का उल्लेख हम यहाँ करते हैं - १. आचार्य देवसेनकृत आलापपद्धति में पर्याय अधिकार के प्रथम सूत्र में पर्याय की परिभाषा निम्नानुसार आती है - "द्रव्य और गुणों के विकार अर्थात् परिणमन को पर्याय कहते हैं।" २. पंचाध्यायी शास्त्र के प्रथम अध्याय के श्लोक २६ एवं ११७ में पर्याय की परिभाषा दी गई है - "गुणों में प्रतिसमय होनेवाली अवस्था का नाम पर्याय है। अथवा द्रव्यों में जो अंश-कल्पना की जाती है. यहीं तो पर्यायों का स्वरूप है।" (94)

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