Book Title: Jin Dharm Vivechan
Author(s): Yashpal Jain, Rakesh Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 41
________________ जिनधर्म-विवेचन पुद्गलद्रव्य-विवेचन ६४. प्रश्न - मात्र एक पुद्गल परमाणु में स्पर्शादि गुणों की कितनी और कौनसी पर्यायें होती है? उत्तर - आचार्यश्री कुन्दकुन्द ने पंचास्तिकाय ग्रन्थ की गाथा ८१ में इसका सामान्य ज्ञान कराया है। आचार्यश्री अमृतचन्द्र ने इसी गाथा की टीका में इसका स्पष्ट खुलासा किया है। “सर्वत्र परमाणु में स्पर्श-रस-गन्ध-वर्ण सहभावी गुण होते हैं और वे गुण, क्रमवर्ती निज पर्यायों सहित वर्तते हैं। वह इसप्रकार - १. पाँच रसपर्यायों में से एक समय में कोई एक रसपर्यायसहित रस वर्तता है। २. पाँच वर्णपर्यायों में से एक समय में किसी एक वर्णपर्यायसहित वर्ण वर्तता है। ३. दो गन्धपर्यायों में से एक समय में किसी एक गन्धपर्याय सहित गन्ध वर्तता है। ४. शीत-स्निग्ध, शीत-रूक्ष, उष्ण-स्निग्ध और उष्ण-रूक्ष - इन चार स्पर्शपर्यायों के युगलों में से एक समय में किसी एक युगलसहित स्पर्श वर्तता है।" इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि स्पर्शादि की २० पर्यायें पुदगल में रहती हैं; तथापि हल्का-भारी, कोमल-कठोर-ये स्पर्श गुण की चार पर्यायें मात्र स्कन्धरूप पुद्गल में ही पायी जाती हैं। ऐसा समझना चाहिए। ६५. प्रश्न - पुद्गल को जानने से हमें क्या लाभ होते हैं? उत्तर - १. पुद्गल के सम्बन्ध में जो अज्ञान था. उसका नाश होकर उसका ज्ञान होता है - यह प्रथम लाभ है। २. स्पर्शादि की पर्यायें, शरीर में होने से अपना यह शरीर, पुद्गलमय है - ऐसी जानकारी हो जाती है। इस कारण स्वशरीर के प्रति आसक्ति का परिणाम शिथिल हो जाता है। ३. स्त्री, पुत्र, मित्र, परिवार आदि का शरीर भी पुद्गलमय् नाशवान है - ऐसा जानने से वैराग्यभाव में वृद्धि होती है। ४. 'मैं चेतनरूप जीव हूँ और शरीर नाशवान हैं' - ऐसा जानकर भेदज्ञान का भाव उदित होता है। ५. शरीर, पूरण (पुष्ट होना) और गलन (नष्ट होना) रूप है - ऐसा पक्का निर्णय होता है; इससे वास्तविक तत्त्व अर्थात् आत्मतत्त्व की महिमा आती है और शरीर के प्रति उपेक्षाभाव व्यक्त होता है। ६. स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण एवं शब्द - ये सब ज्ञेय पदार्थ स्पर्शन आदि इन्द्रिय के विषय हैं - ऐसा ज्ञान होने से स्पर्शनेन्द्रिय आदि से सम्बन्धित इन्द्रियज्ञान मात्र पुद्गल को जानता है; इसलिए इन्द्रियाँ आत्मज्ञान के लिए अनुपयोगी है - ऐसी पक्की श्रद्धा होती है। ७. पुद्गल शब्द, पुद् और गल - इन दो शब्दों से मिलकर बना है। 'पुद्' का अर्थ 'जुड़ना' और 'गल' का अर्थ 'बिखरना' है। पुद्गलस्कन्धों में हमेशा जुड़ना और बिखरना हमें दिखाई देता है, वह पुद्गल का स्वतःसिद्ध स्वभाव है; उसमें 'मैं कुछ नहीं कर सकता हूँ' - ऐसा बोध होने से पुद्गल में कुछ फेरफार करूँ - ऐसे कर्तापने का भ्रम नष्ट हो जाता है। ६६. प्रश्न - पुद्गल के कितने भेद हैं? उत्तर - पुद्गल के दो भेद हैं - १. परमाणु और २. स्कन्ध । ६७. प्रश्न - परमाणु किसे कहते हैं? उत्तर - जिसका दूसरा टुकड़ा अर्थात् विभाग नहीं हो सकता - ऐसे सबसे सूक्ष्म (छोटे) पुद्गल को परमाणु अथवा अणु कहते हैं। ६८. प्रश्न - अणुबम का इन परमाणुओं से कोई सम्बन्ध है क्या? उत्तर - नहीं, अणुबम जिनसे बना है; वे पुद्गल न अणु हैं और न परमाणु। जिनेन्द्रकथित अणु-परमाणु तो अत्यन्त सूक्ष्म हैं। वैज्ञानिकों को इस अणु-परमाणु का कुछ पता ही नहीं है। वे जिनको अणु मानते हैं, वे तो अनन्त परमाणुओं के पिण्डरूप स्कन्ध हैं। ६९. प्रश्न - परमाणु के भी कुछ भेद हैं क्या? उत्तर - परमाणु के भेद सम्बन्धी कथन आचार्य कुन्दकुन्द ने नियमसार (41)

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