Book Title: Jin Dharm Vivechan
Author(s): Yashpal Jain, Rakesh Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 86
________________ जिनधर्म-विवेचन ४. अगुरुलघुत्वगुण को समझने के लिए पण्डित श्री कैलाशचन्दजी द्वारा लिखित श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तर माला भाग १, प्रश्न १२७- १२८, पृष्ठ ३९ का विषय, विशेष उपयोगी है; उसे हम यहाँ प्रस्तुत करते हैं - १९८. “प्रश्न - क्या गुरु से ज्ञान, पुस्तक से ज्ञान अथवा चश्मे से ज्ञान होता है, आदि मान्यताएँ ठीक हैं? १७० उत्तर - बिल्कुल नहीं ! ज्ञान, ज्ञानगुण में से ही उत्पन्न होता है । गुरु, पुस्तक, अथवा चश्मे से ज्ञान होने की मान्यतावाले जीव को अगुरुलघुत्वगुण का सम्यग्ज्ञान नहीं है। एक द्रव्य के अनन्त गुणों में से एक गुण, दूसरे गुण में नहीं जाता तो फिर भिन्न द्रव्य के गुण, दूसरे द्रव्य में कैसे जाएँगे? एक वस्तु का कोई भी गुण, दूसरी वस्तु को मिलता है अर्थात् गुरु का ज्ञान, शिष्य को प्राप्त होता है - ऐसी मान्यतावाला अगुरुलघुत्वगुण को नहीं मानता। तथा पर से आत्मा का और आत्मा से पर का कार्य हो तो द्रव्य बदलकर नष्ट हो जाए, लेकिन ऐसा नहीं होता; अतः गुरु, पुस्तक आदि से ज्ञान हुआ - ऐसी मान्यतावाले ने अगुरुलघुत्वगुण को नहीं माना।” ५. आचार्य अमृतचन्द्रदेव ने भी समयसार की ४७ शक्तियों में १७वीं शक्ति का नाम ही अगुरुलघुत्वशक्ति रखा है। १९९. प्रश्न - अगुरुलघुत्वगुण को न मानने से होनेवाली हानियों को विस्तार से समझाइए; क्योंकि वस्तुस्वरूप को समझने में हम किसी प्रकार की कमी नहीं चाहते । उत्तर - अगुरुलघुत्वगुण न मानने से द्रव्य-गुण- पर्याय की स्वतन्त्रता नाश का प्रसंग आता है तथा जैनदर्शन की प्रमुख विशेषता 'वस्तुस्वातन्त्र्य' की मान्यता पर कुठाराघात होता है, जिससे द्रव्य में द्रव्यपना कायम रहता है, उसे अगुरुलघुत्वगुण कहते हैं। वास्तव में देखा जाए तो अगुरुलघुत्वगुण की मूल परिभाषा तो मात्र इतनी ही है, किन्तु 'द्रव्य का द्रव्यपना कायम रहता हैं इस मूल विषय का विस्तार निम्न तीन बिन्दुओं से किया जाता है - (86) अगुरुलघुत्व गुण- विवेचन १७१ (१) एक द्रव्य दूसरे द्रव्यरूप नहीं होता है इसके स्पष्टीकरण के लिए मान लीजिए कि कोई व्यक्ति बुढ़ापा, बीमारी, रिश्तेदारों की उपेक्षा, आदि कारणों से अत्यन्त दुःखी है और वह इन दुःखों से मुक्ति पाने के लिए निरन्तर 'मरण क्यों नहीं आता?' - इसका विचार करता रहता है; लेकिन यदि वह दुःखी मनुष्य, अपना जीवत्व मिटाकर जड़ होना चाहे तो उसकी यह कामना कभी पूर्ण हो सकती है अथवा नहीं? इसका उत्तर सहज ही तर्कज्ञान तथा प्रत्यक्षज्ञान के आधार पर यही होता है कि वह दुःखी मनुष्य, कभी भी जड़रूप परिवर्तित नहीं हो सकता है। जैसे - दो सगे भाई भी यदि चाहें कि हमारा जीवन एक-दूसरे के सर्वथा समान हो जाए तो यह सम्भव नहीं है। इसी प्रकार जीवद्रव्य भी अन्य पुद्गलरूप कभी नहीं हो सकता तथा पुद्गल भी अन्यद्रव्य या जीवरूप नहीं हो सकता। यह वस्तु-व्यवस्था की स्वतन्त्रता का नियम है। इस प्राकृतिक कठोर अनुशासन से ही विश्व अनादिकाल से सुचारुरूप से चला आ रहा है। - यदि इसमें किसी कारणवश किंचित् भी शिथिलता आ जाए तो विश्व की सर्व व्यवस्था ही सर्वथा नष्ट हो जाए और मनुष्य का जीना, कठिन ही नहीं, अशक्य हो जाए। (२) एक गुण, दूसरे गुणरूप नहीं होता है इस कथन का विस्तृत विवरण इसप्रकार है - जैसे पीला आम, सामान्यतः मीठा होता है, किन्तु उसे मीठा होना ही चाहिए - ऐसा सर्वथा नियम नहीं है। कभीकभी पीला आम भी खट्टा निकल जाता है और हरा दिखनेवाला आम भी मीठा हो जाता है। यहाँ पीले रंग ने खट्टे रस को मीठा नहीं बनाया और हरे रंग ने रस को खट्टा बनाने का काम नहीं किया है। इसीप्रकार जीवद्रव्य के श्रद्धागुण का क्षायिक सम्यक्त्वरूप निर्मल परिणाम (सिद्ध भगवान के सम्यक्त्व जैसा) होने पर भी चारित्रगुण के परिणमन में सम्यक्पना तो अवश्य होता है, परन्तु पाँचवें या छठवेंसातवें गुणस्थान के योग्य चारित्रगुण के परिणमन का विकास होना

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