Book Title: Jin Dharm Vivechan
Author(s): Yashpal Jain, Rakesh Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 85
________________ जिनधर्म-विवेचन अगुरुलघुत्वगुण-विवेचन १. जीवादि किसी भी द्रव्य का कोई भी गुण उसी द्रव्य के अन्य गुण में भी कुछ भी परिणमन नहीं कर सकता है - इस परम सत्य एवं सूक्ष्म विषय को भी स्पष्ट करने का प्रयोजन है। २. जीवादि सभी द्रव्यों में अनादि से रहनेवाले अनन्त गुण बिखर कर पृथक्-पृथक् नहीं हो जाते; इसलिए द्रव्य के अस्तित्व में कोई परिवर्तन नहीं होता; द्रव्य छोटा-बड़ा नहीं होता; द्रव्य जितना है, उतना ही रहता है; द्रव्य, स्वभाव से जैसा है, वैसा ही हमेशा रहता है - यह भी अगुरुलघुत्वगुण के कारण से स्पष्ट हो जाता है। १९५. प्रश्न - अगुरुलघुत्वगुण किसे कहते हैं? उत्तर - जिस शक्ति के कारण द्रव्य में द्रव्यपना कायम रहता है अर्थात् (१) एक द्रव्य दूसरे द्रव्यरूप नहीं होता (२) एक गुण दूसरे गुणरूप नहीं होता और (३) द्रव्य में रहनेवाले अनन्त गुण बिखरकर अलगअलग नहीं हो जाते, उसे अगुरुलघुत्वगुण कहते हैं। १९६. प्रश्न - ‘अगुरुलघुत्व' शब्द का क्या अर्थ है? उत्तर - अ = नहीं, गुरु = बड़ा, लघु = छोटा, त्व = स्वत्व। अर्थात् प्रत्येक द्रव्य अपना स्वत्व/स्वरूप कायम रखता है, अपने में परिपूर्ण रहता है, कभी छोटा-बड़ा नहीं होता है। १९७. प्रश्न - अगुरुलघुत्वगुण के सम्बन्ध में अन्य ग्रन्थों में भी ग्रन्थकार ने क्या कुछ कथन किया है? उत्तर - अनेक ग्रन्थों में अगुरुलघुत्वगुण का कथन आया है, उसे हम यहाँ दे रहे हैं, जिससे आपके ज्ञान में निर्मलता तथा परिपक्वता आएगी - १. आचार्यश्री देवसेन आलापपद्धति ग्रन्थ के गुणाधिकार में कहते हैं - अगुरुलघुत्वविकाराः स्वभावपर्यायाः ते द्वादशधा। षट्स्थानपतितहानिवृद्धिरूपाः - १. अनन्तभागवृद्धिः २. असंख्यातभागवृद्धिः ३. संख्यातभागवृद्धिः ४. संख्यातगुणवृद्धिः ५. असंख्यातगुणवृद्धिः ६. अनन्तगुणवृद्धिः - इति षट्वृद्धिः तथा १. अनन्तगुणहानिः २. असंख्यातगुणहानिः ३. संख्यातगुणहानिः ४. संख्यातभागहानिः ५. असंख्यातभागहानिः ६. अनन्तभागहानिः - इति षट्हानिः । एवं षड्वृद्धि-हानिरूपा ज्ञेया अगुरुलघुत्वशक्तिः।। १७ ।।" ___ अर्थात् अगुरुलघुत्वगुण की पर्यायरूप स्वभावपर्यायें बारह प्रकार की हैं - षट्स्थानपतित हानि-वृद्धिरूप हैं। उनके नाम उक्त प्रकार से वर्णित षट्वृद्धि-षट्हानिरूप जानना चाहिए। २. आचार्य देवसेन ही आलापपद्धति ग्रन्थ में गुणव्युत्पत्ति अधिकार में लिखते हैं - अगुरुलघोर्भावोऽगुरुलघुत्वम् । सूक्ष्मा वागगोचराः प्रतिक्षण-वर्तमाना, आगमप्रमाणादभ्युपगम्या अगुरुलघुगुणाः। सूक्ष्म जिनोदितं तत्त्वं, हेतुभि व हन्यते। आज्ञासिद्धं तु तद्यायं नान्यथावदिनो जिनाः॥ अर्थात् अगुरुलघुगुण के भाव को अगुरुलघुत्व कहते हैं । अगुरुलघुगुण सूक्ष्म हैं, वचन के अगोचर हैं, उनके सम्बन्ध में कुछ कहना शक्य नहीं है, वे प्रतिसमय प्रत्येक द्रव्य में वर्तमान रहते हैं और आगम-प्रमाण के द्वारा ही जाने जाते हैं। कहा भी है - 'जिन भगवान के द्वारा कहा गया तत्त्व सूक्ष्म है, युक्तियों से उसका व्याघात नहीं किया जा सकता, उसे आज्ञासिद्ध मानकर ही ग्रहण करना चाहिए; क्योंकि जिनदेव अन्यथावादी नहीं होते हैं अर्थात् जिनदेव के द्वारा कहे गये आगम को प्रमाण मानकर अगुरुलघुगुणों को स्वीकार करना चाहिए, (- द्रव्यस्वभावप्रकाशकनयचक्र, आलापपद्धति, पृष्ठ २९१) ३. पाण्डे राजमलजीकृत पंचाध्यायी के अध्याय २, श्लोक १००९१०१० में कहा है - कोई भी गुण, कहीं किसी दूसरे गुण में अन्तर्भूत नहीं होता । न एक गुण दूसरे गुण का आधार है, न आधेय है, न हेतु है और न हेतुमान् ही है; किन्तु सभी गुण अपनी-अपनी शक्ति के योग से स्वतन्त्र हैं और वे विविध प्रकार से अनेक होकर भी पदार्थ के साथ परस्पर में मिले हुए हैं।" (85)

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