Book Title: Jin Dharm Vivechan
Author(s): Yashpal Jain, Rakesh Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 83
________________ १६४ जिनधर्म-विवेचन कि पेन में भी प्रमेयत्वगुण है - इस अपेक्षा से हम पेन को भी प्रमेय अर्थात् ज्ञेय कह सकते हैं। यहाँ पुनः प्रश्न होता है कि यदि पेन प्रमेय/ज्ञेय है - यह बात सत्य है तो उस ज्ञेय की अपेक्षा हम-आप कौन हैं? इसका सहज उत्तर आता है कि हम इस ज्ञेय के ज्ञायक/ज्ञाता/प्रमाता/जाननेवाले हैं; अतः पेन ज्ञेय और हम ज्ञायक- ऐसे सहज ही ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध सिद्ध हो जाता है। इसप्रकार स्वयं विचार करें कि प्रमेयत्वगुण की अपेक्षा यह पेन अच्छा है या अतिकष्ट से मैंने प्राप्त किया है या यह मेरा है या इसे मैं किसी को नहीं दूंगा; इत्यादि चिन्तन क्या यथार्थ हैं? अथवा यह पेन मात्र ज्ञेय है, - यह मान्यता यथार्थ है? जब प्रमेयत्वगुण की मुख्यता से सोचा जाए तो यह पेन मात्र ज्ञेय ही है, यही परम सत्य एवं सुखदायक तत्त्व-चिन्तन है। ___ वास्तव में यथार्थ रीति से देखा जाए तो संसार के सभी अनन्तानन्त द्रव्य ज्ञेय ही हैं और मैं मात्र इनका ज्ञाता ही हूँ। इस जगत् से मेरा मात्र ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध है। कर्ता-कर्म या भोक्ता-भोग्य आदि अन्य कोई सम्बन्ध नहीं है। इसप्रकार हमें तत्त्व/सत्य का यथार्थ और सुखदायक निर्णय सहज हो जाता है। ६. प्रमेयत्वगुण के कारण पदार्थ ज्ञान में सहज ही ज्ञात होते हैं; अतः उनको जानने की आकुलता/ज्ञेयलुब्धता का भी नाश हो जाता है। जगत् में भी जो काम सहज निष्पन्न होता है, वह सुखदायक लगता है और जिस काम को करने में असहजता या कठिनाई होती है, वह दुःखदायक लगता है। जगत् में प्रत्येक द्रव्य का परिणमन स्वतन्त्र है। जगत् के सभी पदार्थ अपने-अपने स्वभाव से ज्ञेय हैं, जानने में आने योग्य हैं तो वे पदार्थ अपने निश्चित क्रम में मेरे जानने में आएँगे ही; तो फिर मैं क्यों उनको जानने का भी बोझा ढोता फिरूँ? इसप्रकार प्रमेयत्वगुण के कारण विचारों की दिशा बदलती ही है और जीवन में सुख का स्रोत प्रवाहित होने लगता है। ७. प्रत्येक पदार्थ अपनी सीमा में रहकर ज्ञान का ज्ञेय बनता है - ऐसा जानने से ज्ञाता और ज्ञेय की भिन्नता का भेदज्ञान होता है। प्रमेयत्वगुण-विवेचन १६५ यद्यपि अनन्त सिद्ध भगवान लोक के अग्रभाग में सिद्धालय में शान्ति से विराजमान हैं; तथापि वे किसप्रकार अनन्तानन्त पदार्थों को जानते हैं, इसका विचार प्रश्नात्मक शैली में करते हैं - १. क्या वे सिद्ध भगवान, तीन लोक के अनन्तानन्त पदार्थों में प्रवेश करके उनको जानते हैं? २. क्या अनन्तानन्त ज्ञेयपदार्थ, सिद्ध भगवन्तों के ज्ञान में प्रवेश करते हैं? ३. क्या वे ज्ञेयपदार्थ, सिद्धों की आत्मा के पास पहुँचते हैं। ४. क्या अरहन्त-सिद्धों का केवलज्ञान, अनन्तानन्त ज्ञेयों तक पहुँचता है? वास्तव में देखा जाए तो सिद्ध भगवान के ज्ञान में उक्त अनेक जिज्ञासाओं में से कुछ नहीं होता। सिद्धालय में तो सिद्ध भगवान अपने क्षेत्र में ही यथास्थान विराजमान रहते हैं। इसीप्रकार अनन्तानन्त ज्ञेयपदार्थ भी जहाँ - जैसे विराजमान है, उन्हें भी सिद्ध भगवान में प्रवेश करने की आवश्यकता नहीं है। सिद्ध भगवान का ज्ञान भी अपनी आत्मा में ही रहता है, बाहर कहीं नहीं जाता है और अनन्तानन्त ज्ञेयपदार्थ भी अपना स्थान छोड़कर सिद्धों तक नहीं पहुँचते हैं। फिर भी सिद्ध भगवान के ज्ञान में सर्व पदार्थ दर्पण की तरह झलकते हैं। वस्तु का यह स्वतन्त्र परिणमन कैसा अद्भुत, अलौकिक, आश्चर्यकारी और आकर्षक है; इससे हमें ज्ञाता और ज्ञेय की भिन्नता का विशद् ज्ञान होता है और स्वाभाविक शान्ति मिलती है। १९०. प्रश्न - क्या दिगम्बर मुनि अथवा व्रती श्रावक होने पर ही आत्मा को जानना सम्भव है? क्योंकि उसके बिना आत्मा को जानना कैसे सम्भव है? उत्तर - भाईसाहब! यह आप क्या सोच रहे हैं? दिगम्बर मुनि अथवा व्रती श्रावक हुए बिना क्या आत्मा को जानना सम्भव नहीं है? अरे! मुनि हुए बिना मुक्ति नहीं - यह बात तो सत्य है; परन्तु मोक्षमार्ग अथवा सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के लिए व्रती अथवा मुनि होना अनिवार्य नहीं है। आगम में चौथे गुणस्थानवर्ती अव्रती श्रावक को भी मोक्षमार्गी/सम्यग्दृष्टि/ आत्मानुभवी माना है। (83)

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