Book Title: Jin Dharm Vivechan
Author(s): Yashpal Jain, Rakesh Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 46
________________ आकाशद्रव्य-विवेचन जिनधर्म-विवेचन ८७. प्रश्न - आकाश के कितने भेद हैं? उत्तर - यद्यपि आकाश एक ही अखण्ड द्रव्य है; तथापि छह द्रव्यों की उपस्थिति व अनुपस्थिति (आकाश की उपस्थिति) के कारण उसके लोकाकाश व अलोकाकाश - ये दो भेद होते हैं। आकाश से सम्बन्धित कुछ महत्त्वपूर्ण विषय १. खाली जगह को आकाश कहते हैं। २. आकाश को एक, सर्वव्यापक, अखण्ड, अमूर्तद्रव्य स्वीकार किया गया है। ३. आकाश, अपने अन्दर सर्व द्रव्यों को समाने (अवगाहन) की शक्ति रखता है। ४. यद्यपि आकाश अखण्ड द्रव्य है, परन्तु इसकी विशालता का ज्ञान कराने के लिए इसमें प्रदेशरूप खण्डों की कल्पना की जाती है। ५. आकाश स्वयं तो अनन्त है; परन्तु इसके मध्यवर्ती कुछ भाग मात्र में ही अन्य द्रव्य अवस्थित हैं; इस भाग का नाम ही लोक या लोकाकाश है और उससे बाहर शेष सर्व आकाश का नाम अलोक या अलोकाकाश है। ६. आकाश की अवगाहना शक्ति की विचित्रता के कारण छोटे से लोक में अथवा इसके एक प्रदेश पर भी अनन्तानन्त द्रव्य स्थित हैं। ८८. प्रश्न - आकाशद्रव्य को जानने से हमें क्या लाभ है? उत्तर -१. आकाशविषयक अज्ञान का नाश होकर ज्ञान की प्राप्ति होती है, यह प्रमुख लाभ है। २. आकाश सम्बन्धी अन्य दर्शनों की विपरीत मान्यता का परिहार होता है। ३. रेल अथवा बस में या अन्य प्रसंग में भी मनुष्य, इष्ट व्यक्तियों एवं मित्रों को बैठने के लिए स्थान देकर मैंने बहुत बड़ा काम किया - ऐसी मिथ्या मान्यता का पोषण करता है, परन्तु उसकी यह असत्य मान्यता नष्ट होती है क्योंकि; अवगाहन देना तो आकाशद्रव्य का काम है, उस काम को मैंने किया - ऐसा समझकर स्वयं ज्ञाता-दृष्टा चेतनरूप जीव होते हुए भी अभिप्राय में अपने को आकाशद्रव्य मानता है, जो कि असत्य है। ४. असत्यता का परिहार होने से ज्ञान का झुकाव सत्य की ओर ढलता है और आनन्द प्राप्त होता है। ५. आकाश दशों दिशाओं में अनन्त है - ऐसा पक्का विश्वास होता है। ६. लोक के अधोलोक, मध्यलोक, ऊर्ध्वलोक - ऐसे तीन भेद हैं। इस चमत्कारी विषय का ज्ञान होने से सात्त्विक आनन्द होता है। ७. शास्त्र के अलौकिक विषयों को जानने की जिज्ञासा उत्पन्न होती है। ८. जिनधर्म की गम्भीरता को जानने से जिनेन्द्र भगवान की महिमा आती है तथा सच्चे भगवान की श्रद्धा भी दृढ़ होती है। ८९. प्रश्न - आकाश का भी कोई अन्य आधार होना चाहिए? उत्तर - नहीं, वह स्वयं अपने आधार पर है। उससे अधिक प्रमाणवाले दूसरे द्रव्य का अभाव होने के कारण भी उसका आधारभूत कोई दूसरा द्रव्य नहीं हो सकता। यदि किसी दूसरे आधार की कल्पना की जाए तो उससे अनवस्था दोष का प्रसंग आएगा, परन्तु स्वयं अपना आधारभूत होने से वह दोष नहीं आ सकता है। (सर्वार्थसिद्धि, पृष्ठ २१०) ९०. प्रश्न - आकाश को रहने के लिए कौन स्थान देता है? उत्तर - आकाश से बड़ा कोई द्रव्य नहीं है; अतः आकाश ही आकाश को रहने के लिए जगह देता है अर्थात् आकाश, आकाश में ही रहता है। ९१. प्रश्न - आकाश के समान ही अन्य जीवादि द्रव्यों के रहने के सम्बन्ध में भी ऐसा ही क्यों नहीं कहते? उत्तर - वास्तव में देखा जाए तो प्रत्येक द्रव्य अपने-अपने में ही रहता है। ऐसा ही सच्चा स्वरूप है, किन्तु आकाश सबसे बड़ा द्रव्य है; अतएव आकाश ने अन्य द्रव्यों को रहने के लिए जगह दी ह ऐसा व्यवहार होता है। (46)

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