Book Title: Jin Dharm Vivechan
Author(s): Yashpal Jain, Rakesh Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 53
________________ जिनधर्म-विवेचन १०५ कालाणु और परमाणु एकप्रदेशी हैं तो स्कन्धरूप पुद्गल, जीव, धर्म, अधर्म और आकाशद्रव्य अनेकप्रदेशी हैं। जीव और पुद्गल सक्रिय अर्थात् क्रियावान हैं, शेष सभी धर्मादि चारों द्रव्य निष्क्रिय हैं। इसप्रकार अनेक प्रकार की विभिन्नताएँ एवं विरोध दिखाई देने पर भी अनादिकाल से अनन्तानन्त द्रव्य अविरोध रीति से इस लोक में रहते आ रहे हैं और अनन्तकाल तक साथ-साथ ही रहेंगे; अतः हम मनुष्यों को भी आपस में कुछ मतभेद हों तो भी आनन्द से साथ-साथ रहना चाहिए। ५. प्रत्येक द्रव्य का अपना अभेद्य स्वरक्षा का सुरक्षा कवच है, जिसके कारण कोई द्रव्य किसी अन्य द्रव्य में प्रवेश कर ही नहीं सकता है तो कौन, किसका अच्छा या बुरा कैसे कर सकेगा? । जब मैंने आपके घर में प्रवेश ही नहीं किया तो आपके घर से कुछ लूटकर/चुराकर ले गया - यह कैसे सम्भव है? अतः कोई भी द्रव्य किसी का अच्छा-बुरा करता या कराता है - यह मात्र भ्रम है। जैसे, घड़ी आदि वाटर-प्रूफ, फायर-प्रूफ आदि रहती हैं; वैसे ही जीवादि प्रत्येक द्रव्य, अन्य अनन्त द्रव्यों से स्वतन्त्र ही रहते हैं, किसी का किसी में प्रवेश नहीं है। ६. प्रत्येक जीव अनन्त गुणों का भण्डार है, चाहे वह नरक का जीव हो या निगोद का, पशु-पक्षी हो या कीड़ा-मकोड़ा, राजा हो या रंक, पढ़ा-लिखा हो या अनपढ़, हाथी हो अथवा चींटी, बड़ा वृक्ष हो या लघु वनस्पति । सभी जीव समानरूप से गुणों के भण्डार ही हैं, कोई छोटाबड़ा है ही नहीं। सिद्ध भगवान का जीव हो अथवा एक श्वाच्छोच्छ्वास में १८ बार मरनेवाला जीव हो; सभी जीव, जीव द्रव्य की अपेक्षा समान ही हैं; क्योंकि दोनों में अनन्त-अनन्त गुण हैं। उक्त कथन जीवद्रव्य की अपेक्षा से किया गया है, इसी तरह पुद्गल के प्रत्येक परमाणु के सम्बन्ध में भी समझ लेना चाहिए। धर्म, अधर्म सामान्य द्रव्य-विवेचन और आकाशद्रव्य में भी अनन्त-अनन्त गुण होते हैं। कालद्रव्य, परमाणु के आकाररूप हैं, अतः उन्हें कालाणु भी कहते हैं। लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर एक-एक कालाणु स्थित है; इनके निमित्त से ही अन्य द्रव्यों में परिणमन होता है। प्रत्येक कालाणु में भी अनन्त-अनन्त गुण होते हैं। ७. द्रव्य का स्वरूप जानने से निज भगवान आत्मा की महिमा आती है; क्योंकि आत्मा भी एक स्वयंसिद्ध, अनन्त गुणों का भण्डार जीवद्रव्य है। आत्मा की महिमा आना और अन्य द्रव्यों का आकर्षण मिट जाना - एक ही सिक्के के दो पहलू हैं; अतः अपनी आत्मा की महिमा आते ही अन्य द्रव्यों का आकर्षण मिट जाता है - यह सहज सिद्ध है। १०७. प्रश्न - हमें कौन-सा काम पहले करना चाहिए? अपनी आत्मा की महिमा लाना अथवा अन्य द्रव्यों का आकर्षण मिटाना? उत्तर - भाई! जो काम हमारे आधीन और हमारे हाथ में हो, उसे ही करना बुद्धिमानी है। अन्य द्रव्यों का आकर्षण मिटना तो स्वयमेव हो जानेवाला कार्य है, उसमें करना क्या है? जब हम आगम के अवलम्बन, गुरु के उपदेश और स्वयं के चिन्तन/मनन के साथ युक्तिपूर्वक निज आत्मा को सर्वप्रथम जानेंगे तो निश्चितरूप से आत्मा की महिमा आएगी ही; अतः हमें सबसे पहिले आत्मा के स्वभाव का ज्ञान करानेवाले शास्त्रों का अध्ययन करना चाहिए। शास्त्र अध्ययन के लिए हमें सत्समागम भी बहुत उपकारी है। १०८. प्रश्न - आप आत्मा की महिमा की ही बात क्यों करते हैं? पंच परमेष्ठी की महिमा की बात क्यों नहीं करते? ___उत्तर - जिसे पंच परमेष्ठी की महिमा आती है अर्थात् जिनकी श्रद्धा में पंच परमेष्ठी ही सर्वोपरि हैं, उनके लिए ही आगे की यह चर्चा है। जिन्हें अभी पंच परमेष्ठी को छोड़कर अन्य रागी-द्वेषी देवी-देवताओं की महिमा आती है; उन्हें तो सच्चे देव-शास्त्र-गुरु का निर्णय ही सर्वप्रथम करना ही चाहिये। हमने पूर्व प्रश्न के उत्तर में आगम का अभ्यास और गुरु के (53)

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