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जिनधर्म-विवेचन
३. आधेय- आधार सम्बन्ध - द्रव्य और गुण में आधार-आधेय सम्बन्ध है। द्रव्य, आधार देने वाला है और गुण, आधेय अर्थात् आधार लेने वाले हैं। जैसे- टेबल पर शास्त्र रखे हैं । यहाँ टेबल आधार है और शास्त्र आधेय हैं।
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सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ के अध्याय ५, सूत्र ४१ में 'द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः' - यह सूत्र आया है। इस सूत्र के विशेषार्थ में पण्डित फूलचन्दजी सिद्धान्तशास्त्री के द्वारा विषय अच्छा स्पष्ट हुआ है; इसलिए उसे हम यहाँ दे रहे हैं -
'द्रव्य को 'गुण और पर्यायवाला' बतलाया है, इसी से स्पष्ट है कि गुण, द्रव्य के आश्रय से रहते हैं अर्थात् द्रव्य आधार है और गुण आ हैं, पर इससे आधार और आधेय में कुण्ड और दही के समान सर्वथा भेदपक्ष का ग्रहण नहीं करना चाहिए; क्योंकि गुण, द्रव्य के आश्रय से रहते हुए भी वे उससे कथंचित् अभिन्न हैं। जैसे- तैल, तिल के सब अवयवों में व्याप्त होकर रहता है; वैसे ही प्रत्येक गुण, द्रव्य के सभी अवयवों में समानरूप से व्याप्त होकर रहते हैं।'
४. विशेषण- विशेष्य सम्बन्ध सफेदी और शक्कर में विशेषणविशेष्य सम्बन्ध है । गुणों को विशेषण कहते हैं और द्रव्य विशेष्य है । अधिक जानकारी के लिए जिज्ञासु पाठक, पंचाध्यायी, अध्याय १, श्लोक ३८ से ४३ देखें ।
१२२. प्रश्न - गुण और द्रव्य में किस अपेक्षा अन्तर है ? उत्तर- गुण और द्रव्य में निम्नानुसार अन्तर है -
१. संज्ञा (नाम) अपेक्षा अन्तर गुण का नाम 'गुण' है और द्रव्य का नाम ‘द्रव्य' है - इस तरह नाम (संज्ञा) की दृष्टि से गुण और द्रव्य में अन्तर है।
२. संख्या (गणना) की अपेक्षा अन्तर - गुणों की संख्या अनन्त है। किसी भी द्रव्य में नियम से गुण अनन्त ही होते हैं । अनन्त से कम
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गुणों के समूह को द्रव्य नहीं कहते, अनन्त गुणों का समूहरूप पिण्ड ही द्रव्य है। द्रव्य एक है। (जाति की अपेक्षा से द्रव्य छह हैं और विश्व में एक-एक द्रव्य को भिन्न-भिन्न समझना चाहें तो द्रव्य अनन्तानन्त हैं) यहाँ तो गुण और द्रव्य की संख्या की अपेक्षा विचार चल रहा है; इसलिए गुण अनन्त हैं और अनन्तगुणमय द्रव्य एक है ऐसी अपेक्षा जानना चाहिए।
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३. लक्षण (स्वरूप) की अपेक्षा अन्तर गुण का लक्षण भिन्न है; जैसे, 'जो द्रव्य के सम्पूर्ण भागों में और उसकी सर्व अवस्थाओं में विद्यमान रहते हैं, उन्हें गुण कहते हैं।' जबकि द्रव्य का लक्षण (स्वरूप) भिन्न है; अर्थात् 'गुणों के समूह को द्रव्य कहते हैं।'
४. प्रयोजन की अपेक्षा अन्तर- गुणों की स्वतन्त्रता का ज्ञान कराने का प्रयोजन यह है कि द्रव्य में अनन्त गुण रहते हैं। प्रत्येक गुण स्वरूप/कार्य/लक्षण भिन्न-भिन्न हैं। एक गुण, अन्य अनन्त गुणों के साथ रहते हुए भी अपने स्वरूप (लक्षण) को कभी भी नहीं छोड़ता ।
जैसे, जीवद्रव्य में ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, श्रद्धा, चारित्र, क्रियावती शक्ति, अस्तित्व आदि अनन्त गुण अनादिकाल से जीव के एक-एक प्रदेश में अन्य अनन्त गुणों के साथ रहते हुए भी ज्ञानगुण जानने का ही काम करता है; वह दर्शन, सुख आदि अन्य गुणों का कार्य नहीं करता । यही कारण है कि क्षायिक सम्यग्दृष्टि होने पर भी जीव चारित्र में अपेक्षित विकास नहीं कर पाता । इसप्रकार गुणों की परस्पर स्वतन्त्रता / स्वाधीनपना समझाने का प्रयोजन है।
इसीप्रकार पुद्गलादि के गुणों का ज्ञान कराने का भी अपना प्रयोजन है - जैसे, आम एक पुद्गल का स्कन्ध है; उसमें स्पर्शादि विशेष तथा अस्तित्वादि सामान्य गुण अनन्त - अनन्त रहते हैं । आम, योग्य समय पर पेड़ पर बड़ा होता है। यद्यपि कुछ समय तक बड़ा होने का कार्य