Book Title: Jin Dharm Vivechan
Author(s): Yashpal Jain, Rakesh Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 63
________________ १२४ जिनधर्म-विवेचन ३. द्रव्यत्वगुण - यदि वस्तु में परिणमन ही न हो तो उसमें प्रयोजनभूत कार्य होना भी सम्भव नहीं है, इसलिए तीसरे स्थान पर 'द्रव्यत्वगुण' है। ४. प्रमेयत्वगुण - उक्त तीनों बातों की सिद्धि तभी हो सकती है, जब वह वस्तु, किसी न किसी के ज्ञान का विषय बन रही हो; इसलिए चौथे स्थान पर 'प्रमेयत्वगुण' है। ५. अगुरुलघुत्वगुण - परिणमन करते हुए अपने स्वतन्त्र अस्तित्व की रक्षा अवश्य होनी चाहिए, ताकि वह द्रव्य बदलकर, दूसरे द्रव्यरूप न हो जाए; अन्यथा सभी द्रव्य मिल-जुलकर एकमेक हो जाएंगे। इसी से पाँचवें स्थान पर 'अगुरुलघुत्वगुण' गुण को रखा गया है। ६. प्रदेशत्वगुण - यदि गुणों का कोई आधारभूत या आश्रय न हो तो वह द्रव्य ही रह नहीं सकता तथा आश्रयभूत वस्तु प्रदेशवान् ही होती है; इसलिए अन्त में प्रदेशत्वगुण' कहा गया है। १३९. प्रश्न - कृपया अपने (जीवद्रव्य) में छह सामान्य व विशेषगुण घटित करके दिखाइए? उत्तर - मुझ जीवद्रव्य में छह सामान्य गुण और विशेष गुण निम्नप्रकार से सिद्ध होते हैं। १. मैं हूँ, यह मेरे अस्तित्वगुण के कारण है। २. जानना-देखना मेरा प्रयोजनभूत कार्य है, यह मेरे वस्तुत्वगुण के कारण है। ३. मैं वर्तमान में प्रतिक्षण बालक से वृद्धत्व की ओर जा रहा हूँ या मेरे ज्ञानादि गुणों की अवस्थाएँ निरन्तर बदलती हैं, यह मेरे द्रव्यत्वगुण के कारण है। ४. मुझको, मैं स्वयं व आप सब जानते हैं, यह मेरे प्रमेयत्वगुण के कारण है। ५. मैं कभी भी बदलकर, चेतन से जड़ नहीं बन सकता, यह मेरे अगुरुलघुत्वगुण के कारण है। गुण-विवेचन ६. मैं वर्तमान में मनुष्य की आकृति या संस्थानवाला हूँ, यह मेरे प्रदेशत्वगुण के कारण है। इसी प्रकार ज्ञान-दर्शन आदि मेरे विशेषगुण हैं, यह सर्व प्रत्यक्ष है। १४०. प्रश्न - सामान्यगुण अनन्त होने पर भी आप अस्तित्वादि छह सामान्यगुणों को ही मुख्य क्यों बता रहे हैं? उत्तर - अस्तित्वादि छह सामान्यगुणों को मुख्य बताने के अनेक कारण हैं; उनमें से कुछ कारण आगे दे रहे हैं - १. जिनधर्मकथित वस्तु-व्यवस्था का परम सत्य ज्ञान होता है और मैं जीवद्रव्य, किसी के उपकार से नहीं हैं; परन्तु अनादिकाल से ही स्वतन्त्र हैं एवं अनन्तकाल पर्यंत स्वतन्त्र ही रहँगा - ऐसा पक्का निर्णय होता है। २. मोक्षमार्ग प्रगट करने का अभूतपूर्व पुरुषार्थ जागृत हो जाता है, जो हमें अपेक्षित है। ३. अस्तित्वादि सामान्यगुणों की यह एक खास विशेषता है कि इनका परिणमन अनादिकाल से कभी विभावरूप हआ ही नहीं अर्थात इनका परिणमन आज तक शुद्धरूप ही हुआ है और अनन्त भविष्यकाल में भी शुद्धरूप ही परिणमन होता रहेगा। ४. सामान्यगुणों का ज्ञान, भेदज्ञान के लिए अतिशय उपयोगी है। ५. समयसार आदि ग्रन्थों में शुद्धात्मा एवं द्रव्य-गुण-पर्याय की स्वतन्त्रता का जो जोरदार उद्घोष है, उसका परिज्ञान जनसमान्य को इन अस्तित्वादि छह सामान्यगुणों से ही होता है। मैं आपको अपने बारे में सत्य कहता हूँ कि मुझे ग्रन्थाधिराज समयसार का मर्म, जितना समयसार शास्त्र को पढ़ने से समझ में नहीं आया; उतना अस्तित्वादि सामान्यगुणों के ज्ञान से समझ में आया है - यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है। यहाँ गुण-विवेचन २८ प्रश्नोत्तर के साथ पूर्ण होता है; अब आगे, अस्तित्व आदि छह सामान्यगुणों का क्रम से विस्तृत विवेचन प्रारम्भ करते हैं। (63)

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