Book Title: Jin Dharm Vivechan
Author(s): Yashpal Jain, Rakesh Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 45
________________ आकाशद्रव्य-विवेचन ८९ ८८ जिनधर्म-विवेचन ८२. प्रश्न - धर्मद्रव्य की परिभाषा में 'स्वयं गमन करते हुए' शब्दों का प्रयोग क्यों किया है? उत्तर - गमनरूप कार्य तो जीव और पदगल स्वयमेव ही करते हैं. उस समय धर्मद्रव्य मात्र उस कार्य में उदासीनरूप से निमित्त होता है, वह स्वयं गमनरूप कार्य का कर्ता नहीं - यह बताना ही आचार्यों का अभिप्राय है; अतः परिभाषा में स्वयं गमन करते हुए' शब्दों का प्रयोग किया है। इसी प्रकार अधर्मद्रव्य की परिभाषा में प्रयुक्त 'स्वयं गमनपूर्वक स्थिति रूप' शब्दों का अर्थ समझना चाहिए। ८३. प्रश्न - धर्म तथा अधर्मद्रव्यों की आकाश में क्या स्थिति है? उत्तर - धर्म तथा अधर्म, दोनों द्रव्य लोकाकाश में व्यापक तथा लोकाकाश प्रमाण हैं। वे स्वतन्त्र, अरूपी और अनादि-अनन्त रहते हुए सदा शुद्ध ही रहते हैं। ८४. प्रश्न - जिनवाणी में धर्म-अधर्मद्रव्य को समझाने के लिए 'मछली को गमन करने में पानी' और 'पथिक को वृक्ष की छाया' आदि उदाहरण भी वही के वही दिये जाते हैं. इनका कथन भी बहत ही अल्प मात्रा में है; इन्हें अधिक विस्तार से और अनेक उदाहरणों से क्यों नहीं समझाया गया है? उत्तर - देखो! आचार्यों को तो मुख्यरूप से इस जीव को धर्म/सुख कैसे प्राप्त हो - यही समझाना है; अतः पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और कालद्रव्य का ज्ञान भी उतना अनिवार्य नहीं है; जितना जीवद्रव्य का ज्ञान आवश्यक है। ___ जीव को समझने के लिए ही जितना पुद्गलादि द्रव्यों का ज्ञान अनिवार्य है, उतना ही अति आवश्यक विषय समझाने में ग्रन्थकर्ता आचार्यों को रस है। जीवों को भेदज्ञान कराना मुख्य प्रयोजन है। इसकारण धर्मादिक द्रव्यों का ज्ञान भी अति संक्षेप से कराते हैं। पुद्गल की भी संक्षेप में ही जानकारी देते हैं। जैसे, जीव से सम्बन्धित आहारवर्गणा आदि पाँच वर्गणाओं का कुछ ज्ञान कराते हैं। का कुछ ज्ञान करात हा जबकि वर्गणाएँ तो तेईस हैं, उन सबका अति संक्षेप में ही जिनवाणी में नाममात्र कथन किया गया है। आकाशद्रव्य का सामान्य स्वरूप ८५. प्रश्न - आकाशद्रव्य किसे कहते हैं? उत्तर - जो जीवादिक सभी द्रव्यों को रहने के लिए स्थान/जगह देता है; उसे आकाशद्रव्य कहते हैं। आकाशद्रव्य सर्वव्यापक है, सर्वत्र है। आकाशद्रव्य की आगम सम्मत अन्य परिभाषाएँ - आचार्यश्री उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र के ५वें अध्याय के सूत्र ४, ६, ७.१८वें सत्र में निम्न प्रकार आकाश का ज्ञान कराया है१. “आकाशद्रव्य नित्य, अवस्थित और अरूपी है तथा एक, अखण्ड निष्क्रिय द्रव्य है और अवगाह देना इसका उपकार है।" पंचास्तिकाय गाथा ९० में आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है - २. “जीवों को और पुद्गलों को वैसे ही शेष समस्त द्रव्यों को जो सम्पूर्ण अवकाश देता है, वह आकाशद्रव्य है।" धवला, पुस्तक ४, पृष्ठ ७ पर आया है - ३. “आकाश सप्रदेशी है और वह ऊपर, नीचे और तिरछे सर्वत्र फैला हुआ है; उसे ही क्षेत्र या लोक जानना चाहिए। जिनेन्द्र भगवान ने उसे अनन्त कहा है। आचार्य कुन्दकुन्द ने बारस अणुवेक्खा के गाथा ३९ में कहा है - ४. “जीवादि छह पदार्थों का जो समूह है, उसे लोक कहते हैं और वह अधोलोक, ऊर्ध्वलोक व मध्यलोक के भेद से तीन प्रकार का है।" सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ में पृष्ठ २१० पर आया है - “जहाँ धर्मादि द्रव्य विलोके जाते हैं, उसे लोक कहते हैं; उससे बाहर सर्वत्र अनन्त अलोकाकाश है।" ८६. “प्रश्न - लोक किसे कहते हैं? उत्तर - जिसमें जीवादि पदार्थ देखे जाते हैं अर्थात् उपलब्ध होते हैं, उसे लोक कहते हैं। (45) (45)

Loading...

Page Navigation
1 ... 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105