Book Title: Jin Dharm Vivechan
Author(s): Yashpal Jain, Rakesh Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 35
________________ जिनधर्म-विवेचन ६८ यही स्वभाव है। अपने गुण और पर्यायों के सिवा उनकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। इसी से दूसरे शब्दों में उसे गुण-पर्यायवाला कहते हैं। पहले यद्यपि द्रव्य को उत्पाद-व्यय ध्रौव्यस्वभाववाला बतला आए हैं और यहाँ उसे गुण-पर्यायवाला बतलाया हैं; पर विचार करने पर इन दोनों लक्षणों में कोई अन्तर प्रतीत नहीं होता; क्योंकि जो वस्तु उत्पादव्यय और ध्रौव्य शब्द द्वारा कही जाती है, वही गुण - पर्याय शब्द द्वारा कही गई है। 'उत्पाद और व्यय' - ये 'पर्याय' के दूसरे नाम हैं और 'धौव्य' - यह 'गुण' का दूसरा नाम है; इसलिए द्रव्य को उत्पाद-व्यय और धौव्यस्वभाववाला कहो अथवा गुण और पर्यायवाला कहो, दोनों का एक ही अर्थ है । इस प्रकार गुण और पर्याय ये लक्ष्यस्थानीय है तथा उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य- ये लक्षणस्थानीय हैं। गुण का मुख्य लक्षण धौव्य है तथा पर्याय का मुख्य लक्षण उत्पाद और व्यय है। जिसका लक्षण किया जाए उसे लक्ष्य कहते हैं और जिसके द्वारा वस्तु की पहचान की जाए, उसे लक्षण कहते हैं। गुण की मुख्य पहचान, उसका सदाकाल बने रहना है और पर्याय की मुख्य पहचान, उसका उत्पन्न और विनष्ट होते रहना है। अथवा यहाँ द्रव्य को लक्ष्य तथा उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य को या गुण और पर्याय को उसका लक्षण कहा है; इससे सहज ही इनमें भेद की प्रतीति होती हैं, किन्तु वस्तुतः इनमें भेद नहीं है। भेद, बुद्धि में आता है। वस्तु तो अखण्ड और एक है। जब उसे जिस रूप में देखते हैं, तब वह उसी रूप में दिखाई देती है। द्रव्य का यह विचार, उसे सत्स्वरूप मानकर ही किया जाता है, इसलिए प्रकारान्तर से द्रव्य को सत् भी कहा जाता है। आशय, इन तीनों व्याख्याओं का एक ही है।" (35) द्रव्य - विवेचन ४५. प्रश्न उत्तर - द्रव्य अनेक नाम भी हैं। ४६. प्रश्न- यहाँ द्रव्य को तत्त्वार्थ या पदार्थ भी कहा है? जबकि तत्त्वार्थ सात होते हैं, पदार्थ नौ होते हैं और द्रव्य छह होते हैं; अतः द्रव्य को तत्त्वार्थ कैसे कह सकते हैं? ६९ द्रव्य के और क्या-क्या नाम हैं? वस्तु, सत्, सत्ता, तत्त्वार्थ, पदार्थ, अन्वय आदि उत्तर – भाईसाहब! आचार्य कुन्दकुन्द ने नियमसार में कहा है - जीवा पोग्गलकाया, धम्माधम्मा य काल आयासं । तच्चत्था इदि भणिदा, णाणागुणपज्जएहिं संजुत्ता ॥ ९ ॥ अर्थ - जीव, पुद्गलकाय, धर्म, अधर्म, काल और आकाश - यह तत्त्वार्थ कहे हैं, जो कि विविध गुण-पर्यायों से संयुक्त हैं । ४७. प्रश्न- गुणों के समूह को द्रव्य कहा । यहाँ गुणों के समूह का अर्थ दो गुणों का समूह, तीन गुणों का समूह, सैकडों या हजारों गुणों क समूह अथवा असंख्यात गुणों का समूह - कितने गुणों का समूह लेना ? उत्तर- दो, चार, सैकड़ों, हजारों अथवा असंख्यात गुणों का समूह - ऐसा अर्थ नहीं लेना; परन्तु नियम से अनन्त गुणों का समूह ही लेना चाहिए। इसका स्पष्ट अर्थ है- अनन्तगुणों के समूह को द्रव्य कहते हैं; क्योंकि प्रत्येक द्रव्य में नियम से अनन्त ही गुण होते हैं। एकप्रदेशी परमाणु या कालाणु हो अथवा असंख्यातप्रदेशी जीव, धर्म या अधर्म हो अथवा अनन्तप्रदेशी आकाश हो, प्रत्येक में अनन्त ही गुण होते हैं। ४८. प्रश्न - एकप्रदेशी कालाणु या परमाणु में भी अनन्त गुण और असंख्यातप्रदेशी धर्मादि द्रव्यों में या अनन्तप्रदेशी आकाश में भी अनन्त गुण - यह विषय समझ में नहीं आता। क्या करें? उत्तर - अपना क्षायोपशमिक ज्ञान अति अल्प है, उससे सब विषय स्पष्ट समझ में आए, यह अपेक्षा ही अनुचित है। हम प्रत्यक्षरूप से मनुष्य जीवन में ज्ञान की अल्पता तथा विचित्रता का अनुभव करते हैं।

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